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________________ १४६] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा रति करना, कुसंगति करना, अरतिके बंधका कारण है, (४) अपने आप शोक करना व दूसरोंको शोकित देखकर प्रसन्न होना शोकके बंधका कारण है । (५) स्वयं भयभीत रहना व दूसरोंमें भय पैदा करदेना भयके बंधका कारण है । (६) शुभ कामोंसे घृणा करना जुगुप्साके बंधका कारण है । (७) असत्य भाषण, दूसरों को ठगना, दूसरोंके छिद्र देखना, कामभावकी वृद्धि रखना स्त्रीवेदके बंधका कारण है । (८) अल्प क्रोध रखना, घमड न करना, स्व स्त्रीमे संतोष रखना पुरुष वेदके बंधका कारण है । (९) तीन राग रखना, गुप्त इंद्रियको छेदना, 'परस्त्रीसे आलिंगन आदि नपुंसक वेदके बंधका कारण है । (६) नरकायुके बंधके विशेष भाव (१) बहु आरंभ-न्यायको छोडकर अन्यायसे प्राणियोंको पीडाकारी व्यापार व अन्य आरंभ करना। (२) बहु परिग्रह-न्यायको छोडकर अन्यायसे भी परिग्रहको एकत्र करनेका तीन राग रखना। इन दोनों हेतुओंसे हिंसादि दुष्ट कार्योमे शीघ्र प्रवर्तना, परधन हर लेना, पाचों इंद्रियोंके भोगोंकी अति गृद्धता रखना, कृष्ण लेश्या सम्बन्धी हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी, परिग्रहानंदी रौद्रध्यान करना तथा रौद्रध्यानसे मरना ।। (७) तिर्यंच आयुके बंधके विशेष भाव मायाचार करना, मिथ्यात्व सहित धर्मका उपदेश देना, शील व्रत न पालना, दूसरोंके ठानेमे राग भाव, नील कपोत लेल्या सम्बन्धी आर्तध्यान करना व आर्तध्यानसे मरना। (८) मनुष्य आयुके बंधके विशेष भाव(१) अल्पारंभ-न्याय सहित व संतोष सहित व्यापारादि
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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