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________________ जीव तत्व। . . . [१११ ११--भव्य-दो प्रकार--भव्य, अभव्य। जिनमें आत्मज्ञान प्राप्तिकी योग्यता है वे भव्य जीव हैं। जिनमें सम्यकूदर्शन या आत्मप्रतीति होनेकी योग्यता नहीं है वे अभव्य है। १२--सम्यकदशन--इस मार्गणाके छः भेद है--उपगम सम्यक्त, क्षायिक सम्यक्त, क्षयोपशम सम्यक्त, मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र । यहां तीन पहले गुणस्थानोंको भी इसलिये लिया गया है कि श्रद्धानकी ये तीन अशुद्ध जातियां है। इन छहोंमेंसे संसारी जीवके कोई न कोई एक वक्त पाया जायगा। १३-सैनी-दो। सैनी तथा असैनी। मनसहित सैनी है, मनरहित असैनी होते है। १४--आहारक-दो प्रकार--आहारक, अनाहारक । स्थूल शरीर बनने योग्य पुद्गल । जो ग्रहण करें ये आहारक है, जो न ग्रहण करें वे अनाहारक हैं । जब जीव एक शरारको छोडकर दूसरे शरी के लिये जाता है तब यह टेढ़ा विदिशाओंमें नहीं जाता है किन्तु सीधा पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊपर, नीच इन छ. दिशाओंके द्वारा जाता है। एक दफे मुडनेमे एक समय, दो दफे मुडनेमें दो, तीन दफे मुड़नेमें तीन समय लगते है । समय इतना सूक्ष्म है कि पलक मारनेमें बहुतसे समय बीत जाते है। कोई जीव कहीं भी जावे उसको तीन समयसे अधिक समय बीचमे न लगेगा। बीचकी अवस्थाको विग्रहगति कहते है। जितने समय बीचमे लगते है उतने समयतक अनाहारक कहलाता है फिर आहारक होजाता है। यदि कोई किसी स्थानमें विना मोडा लिये सीधा जाता है तो वह अनाहारक नहीं होगा क्योंकि बीचमें कोई समय नहीं लगा। एक कोनेसे दूसरे कोनेमें
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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