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________________ ११०] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। स्थानमे देशसंयम होता है। छंट सातवेमे साधुओके सामायिक, छेटोपस्थाना. परिहार वि० नीन संयम होने है। आठवे नौमे गुणस्थानोंमे मामायिक व छेटोपस्थापना दो संयम होने है । सामसापराय ढसर्व गुणस्थानमे । फिर ग्यारहसे चौदह गुरू नक यथारख्यान चारित्र होता है। ९. दर्शन--चार । चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल । अचक्षुदर्शन ( आखके सिवाय और इन्द्रियोंसे सामान्य जानना ) यह पाचों इन्द्रियवालोंके होता है । चक्षुदर्शन चौइंद्री और पंचेंद्रियोंके होता है। अवधिदर्शन अवधि ज्ञानियोंके व केवलदर्शन केवलज्ञानियोंके होता है। १०-लेश्या--छ---कृष्ण, नील. कापोत, पीत, पद्म, शुक्र । संसारी जीवोंकी जो मन वचन कायकी प्रवृत्ति कपाय सहित होती है उसको लेश्या ( thouglt point ) कहते है । पहली तीन अशुभ है । कृष्ण अशुभतम (worst), नील अशुभतर (Forse) कापोत अशुभ ( bad ); तीन शुभ है पीत-शुभ (good ) पद्मशुभतर ( bettri, शुक्ल शुभतम ( test ) इन भावोंके अनुसार पाप पुण्य वंधता है । चौइन्द्री तकके जीवोंके सर्व नारकियोंके तीन अशुभ लेश्याएं होती है। पंचेंद्री असैनीके पीततक चार लेग्याऐं होती है। पंचेंद्रियोंके चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्याएं होती है। पांचवेंसे सातवें गुणस्थान तक तीन शुभ लेश्याएं होती है। आठवेंसे तेरहवें तक शुक्ललेल्या होती है । यद्यपि ११,१२,१३ मे गुणस्थानमे कषायें नहीं होती है तथापि मन, वचन, काय योग है इससे शुक्ललेश्या होती है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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