SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२३ ग्यारहवाँ सर्ग ( ३२ ) मनुष्य चाहे जितना सुखी रहे, अनन्त चाहे उसका प्रमोद हो, समाप्त आशा उसकी हुई जभी, ज्वरा' तभी आकर कट दाबती। ( ३३ ) चतुर्दिशा मे धुंधला प्रकाश हो, प्रलम्ब छाया गिर भूमि मे पडे, थकान हो, निर्बलता महान हो, विचार देखो, तब मृत्यु आ गयी। ( ३४ ) तरंगिता काल-नदी बही तथा अनन्त-धामाम्बुधि' पास आ गया, बचा सका, हा! तृण भी न दड का मनुष्य डूबा सहसा भवाब्धि मे। ( ३५ ) कि जर्जरा जीवन की तरी चली तरंग-सपूरित काल-सिधु मे, थपेड कमस्रिव-नीर की लगी तुरन्त डूबी वह मृत्यु-घाट मे। 'मृत्यु । 'अनन्त तेज का समुद्र अथवा अनन्त स्थानवाला समुद्र
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy