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________________ नवा सर्ग २७३ ( ६४ ) "विलोकता पूर्ण शशांक व्योम को अनभ्र'जो, नीलिम जो, प्रशात जो, प्रकाशता दीप्त दिनेश भूमि को प्रबुद्ध जो, सुन्दर जो, प्रसन्न जो। ( ६५ ) "परन्तु भू से, नभ से, दिगन्त से, अहार्य से, कानन से, चतुष्क' से, प्रभूत कोई सुषमा शनै शनैः चली गयी-सी प्रतिभात हो रही । "स-मोद गाते पिक आन-वृक्ष पै मयूर आनदित नृत्य-लीन है, प्रमोद सर्वत्र विराजमान है, परन्तु मेरा मन दुःख-पूर्ण है। ( ६७ ) "प्रपात होता जल का महीध्र' से, कदापि मेरे दुख से न रुह है, वितु का नाद हुआ वनान्त में धरित्रि आमोद-प्रपूर्ण हो रही । विना बादल का। वेन । 'पर्वत । 'हायो। १८
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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