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________________ ૨૨૪ वर्द्धमान ( ९२ ) "मनुष्य मिथ्या-मति-अघ-कूप में पडे हुये जो, उनको उवारने पधारते है निज-धर्म-हस्त से प्रकाम देने अवलम्ब विश्व को। ( ९३ ) "पवित्र वाणी जिनकी अजन ही अनुप देगी उपदेश विश्व को , विनाशकारी वह-भाँति कर्म के जिनेन्द्र है भूतल मे पधारते । ( ९४ ) "प्रसिद्ध जो धर्म-प्रवृत्ति हेतु है, अपार - ससार - समुद्र - सेतु है, समुच्च जो ज्ञान-अनीक'-केतु है, पघारते है महि मे जिनेन्द्र वे। ( ९५ ) "उठो, उठो, सत्वर प्राणियो। उठो, प्रवृत्त हो आश्रित' जीव धर्म में, हुआ सभी का भव नष्ट विश्व मे, महान सौभाग्य उदीयमान है। सेना। अधीन । 'अंधकार ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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