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________________ १६२ वर्द्धमान ( ९२ ) "प्रिये । सदा सुन्दर प्रेम-भावना प्रपूर्णता है नियमानुवृत्ति' की, कि हूँत का तात्त्विक मूल-रूप है कि एकता है युग चित्त-वृत्ति की।" ( ९३ ) "विभावना' ईश-प्रदत्त प्रेम की कही अनैसर्गिक सपदा गयी, विलोचनो के, प्रभु! एक वुन्द में प्रतीत सारी वसुवा लखी गयी।" ( ९४ ) "रहस्य से पूर्ण सहानुभूति है, कि प्रेमियो के मन की प्रसूति है, प्रिये ! मुझे प्रेम-स्वरूप भासता सु-लभ्य भू मे विभु की विभूति है।" ( ९५ ) "प्रभो । सदा यौवन-पूर्ण प्रेम की वसन्त-जोभा जग में बनी रहे।" "प्रिये ! सदा प्रेम-रसावलविनी लगी झडी प्रावट की घनी रहे।" 'नियम पलने की प्रवृत्ति । द्वैगभाव । 'विचार। 'जन्म । 'वर्षा ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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