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________________ वर्द्धमान ( ४३ ) "सदैव अर्हत-स्वरूप अर्क के प्रकार होते भव-व्योम-अक मे, महा कुलिंगी' खल-तस्करादि भी प्रतीत होते द्रुत भागते हुये । ( ४४ ) "तथैव साम्राजि | जिनेन्द्र-अर्यमा स्वकीय सवोधन-अशु से मुदा समस्त-प्राणी-भव के विनाश को स्व-जन्म लेते तव देवि ! कुक्षि में। ( ४५ ) "तथैव तीर्थंकर शुद्ध ज्ञान की गभस्तियो' से कर धर्म-मार्ग को प्रशस्त, पाते पद अतरिक्ष में सु-लोचने । लोचन लोक-लोक के । ( ४६ ) "तथैव तीर्थंकर वाक्य-अशु से सदा खिलाते मन-कज साधु के, तथैव तीर्थेश्वर शब्द-रश्मि से विनागते काम-कुमोद सत के। 'कललणी। मूर्य । 'किरणें । 'दुख या कुमुद ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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