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________________ - १० - के अनुकूल है किन्तु यही-रही इन लिए नहीं पता कि निगला गयी नाविना न होकर नगवान्त्री माता है। नन्नवाया नबिके नामने गा चित्रा* लिए बहन ही नमित फ क ा। इतने ही उसे सब कुछ कहना यां पपराको निभाना था। कविने फ्पी नर्गनाके दोषणा गोरी हर्ट टेना चाहा है और यही भक्त पायो मन विना पी.कहीगही जुगुना उत्पन्न हा जाती है। गने पाठवा दिवा है कि गेट, नितन्त्र प्रा. जयचली। एक्ने अपिन वा उब न होता तो नी काम च नाना था। इन उनमें व्ही न्हा कार्यानि गयो जोवन पन्न्पगने मान्य है श्री. या प्रनगम प्रमोन्न नदी उसे छोडने तिर पवि वाच्य नहीं। दनरी बात यह भी है वि गिलारा नव-मित्र वर्णन मी प्रेपनी पम् वियाग रहा है। निजायंग मन-मन मान्दयं-बल्लरी जिन नाम दलो और विश्वउनुनगरे प्रति लुब्ध है, उनका गाव वन उन्ही दृष्टि-गान किया गया है । नीनु यह नि ननांग पानिव शृगाः यदि पांचवे नगमें अभावि प्राध्यामिक हो गया है तो यह कविको सक्न पल्पनाका प्रतीक है। जंज्ञा कि होना चाहिए, वईमान काय प्रवानत भक्ति प्रो. वैगम्पका काव्य है। नहावीर कुमारावस्याने ही दयानन मीर चिन्ननगील है । पाठ पनी प्रवन्नामें ही वह अपने मन्वायोलो नबोधित करते है - "सखे ! विलोको वह दूर नामने प्रचण्ड दावा जलता प्ररप्यमें। चलो, वहांके खर जीव जन्तुको नहायता दें, यदि हो सके, अनी ॥" मनुष्य, पक्षी, कृनि, जीव, जन्तुको मदैव रक्षा करना न्वधर्न है। अन चतो काननमें विलोक लें । कि कौनती व्याधि प्रवर्द्धमान है ॥" उनी प्रायुमें कुमार वढेगन ऋग्वालिन नदीके तट - पहुंचते -
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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