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________________ "निशीयके बालक, स्वप्न नामके, प्रबुद्ध होके त्रिशला - हृदन्जमें । मिलिन्दसे गुंजन-शील हो गए" ( १०५११७ ) "उगा नहीं चन्द्र, समूढ प्रेम है न चाँदनी, केवल प्रेम-भावना । न ऋक्ष' है, उज्ज्वल प्रेम-पात्र है अत हुआ स्नेह-प्रचार विश्वमें ॥" ( १४/६३१ ) और यह श्रनू है 'तारे --- "वियोगको है यह मौन भारती दृगम्बु-धारा कहते जिसे सभी । असीम स्नेहाम्बुधिको प्रकाशिनी समा सकी जो न सशब्द वक्ष में" (४२११७२) 'वद्धमान' में शृगार और प्रेमका वर्णन राज-दम्पत्ति सिद्धार्थ और गिला के प्रोट गाम्बिक स्नेह पर अवलम्वित है । शृगार-रमकी सहज उत्पत्ति विकासके जो उपादान है और नायक-नायिकाके युवकोचित विभ्रम-विलानके चित्रणके लिए कविको जो चित्र-पट प्राप्त होना चाहिए वह यहाँ नही हूँ । इस लिए इन शृारका सन्तुलन कठिन हो गया है । पर कविने इसे निभानेका प्रयत्न किया है। पांचवे सर्गमें प्रेमकी गरिमा और महिमा सिद्धार्थ और मिलाके स्नेह मवाद रूपमं दिखाई गई है । दार्शनिकताके वीचमें जहाँ कही मानवीय प्राणांकी भाववाग उमटती है वहीं स्थल अविक नरम और सजीव हो जाते हैं । निद्धार्थ कहते हैं -
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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