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________________ सत्रहवां सर्ग ५४५ ( ८० ) सुतीक्ष्णता मे अथवा विघात' म सुरेन्द्र का वज्र प्रसिद्ध लोक मे, परन्तु सो भी इस-सा न तीक्ष्ण है प्रहार मे, मारण मे कि वेध' मे ( ८१ ) सहस्र-आशीविष-दश तुच्छ है, असख्य भी वृश्चन'-डंक सूक्ष्म है, अगण्य दैवी अभिशाप व्योम से प्रकांड वर्षा करते कृतघ्न पै। ( ८२ ) कृतघ्न है जो कृत को न मानता, कृतघ्न है जो रखता रहस्य है, कृतघ्न है जो बदला न दे सके, कृतघ्न है मानव भूल जाय जो। [ द्रुतविलंबित ] ( ८३ ) इस प्रकार कहे कुछ दोष जो मनुज का करते विनिपात है, फिर लगे कहने गुण जो सदा शुभ-समुत्थित जीवन-हेतु है। चोट । 'वेधन । 'विच्छू । 'प्रत्युपकार ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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