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________________ ४८२ वर्द्धमान [ द्रुतविलंवित ] ( १७२ ) मनुज जो दृढ निश्चयवान है, वह नहीं हटता निज ध्येय से, जिस प्रकार पतग' प्रदीप के निकट ही तजता निज प्राण है। [वंशस्थ] ( १७३ ) कठोर चा उपवास आदि मे व्यतीत यो वारह वर्ष हो गये, पुन चले वे द्रुत वात-चक्र से सुधी घुमाते निज धर्म की धुरी। ( १७४ ) हिमाद्रि-माला कर विद्ध जान्हवी प्रवाहिता भू-तल में हुई यथा, त्या परीक्षा-परिखा-विलधिनी यतीन्द्र-यात्रा महि-भासुरा चली। ( १७५ ) सहस्र-सर्योदय की प्रभा भरी ललाट मे थी उनके प्रकागती, विलोकते ही नर मुह्यमान की विमोह-यामा हटती न क्यो भला ? कीट । 'गला । 'खाई । 'प्रकाशित करनेवाली।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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