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________________ ४१८ वर्द्धमान ( ६० ) "प्रभो ! तुम्ही क्षत्रिय-श्रेष्ठ ! धन्य हो, तुम्ही प्रतापी जग मे अनन्य हो, सुमार्ग कल्याण समेत आप्त हो, विभो! तुम्हे सम्यक ध्येय प्राप्त हो। "सदा तुम्हारी जय हो दयानिधे ! समस्त हिंसा क्षय हो, कृपानिधे ! दुरन्त हो नर्तन नष्ट पाप का, तुरन्त हो वर्तन वर्म-चक्र का । ( ६२ ) "विनाशकारी वन मोह-गत्र के प्रभो! करोगे जग-हेतु कार्य जो, वहित्र' होगा वह विश्व-सिंधु का, दिनेग होगा भव-रात्रि का वही । ( ६३ ) "स्व-धर्म-रत्न-त्रय-प्राप्त हो, प्रभो । धरित्रि में उन्नत भव्य जीव को, विलीन मिथ्यामत का तमित्र हो दिखा पडे मोन-रमा मनोरमा । 'जहाज । जगत ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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