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________________ ४०० दर्द्धमान ( १०० ) स्व-धर्म चिन्तामणि-कल्पवृक्ष है, स्व-धर्म संपूजित कामधेनु भी, स्व-धर्म ही भू-गत स्वर्गलोक मे, स्व-धर्म ही श्रेय, विधर्म हेय है। ( १०१ ) अत: करो पालन नित्य धर्म का, पदान्ज-प्रक्षालन सत्य-धर्म का, न प्राप्त होती जिसके बिना कभी मनुष्य को केवल-ज्ञान-कल्पना । [द्रुतविलंबित] ( १०२ ) हृदय-अंबुधि को जिनराज के अति तरगित-सा करता हुआ विरति-पोषक वादग - भावनानिचय' निश्चय ही उठने लगा। अब महान प्रमत्त, गजेन्द्र का दृढ़ अलान हुआ ब्लय', देखिए, चल न दे यह कानन को कही रह गया ब्वरोव न अंत में। समूह । 'वधन । 'टोला ।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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