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________________ वर्द्धमान ( ९२ ) विनष्ट होता पहले प्रमोद है, पुनश्च आशा करती प्रयाण है, विभीति होती फिर नष्ट अंत में, स-धैर्य आती जब मृत्यु सामने । ( ९३ ) मनुष्य का निश्चित अंतकाल है, न जानते कायर र कल्मपी, पुन. पुन. हो मृत जी रहे वही जिन्हे कि जीना मरना समान है। ( ९४ ) जगज्जयी भूपति भी न जानते, कहाँ-कहाँ विस्तृत मृत्यु-राज्य है, प्रसार मा सप्त-नमुद्र-दोसरी दिनान्त-गव्यन्त-प्रमाण व्याप्ति है। ( ९५ ) विरोट में मड़ित मरले भी निदान होने पर मम्मनात. निदेश देनी जब मृत्यु है नन्द चिनाब होने या प्रीतमाग-।
SR No.010571
Book TitleVarddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnup Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages141
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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