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________________ साधना की पूर्व भूमिका | आत्मवाद की इसी पृष्ठभूमि पर जैन आचार-विचार का संपूर्ण महल खड़ा है। आत्मवाद को व्यवस्थित रूप से समझने के लिये कर्म-सिद्धान्त का विवेचन भी किया गया है । आत्मा और कर्म इन्हीं दो तत्वों पर जैनधर्म का आचारपक्ष, विचारपक्ष, आध्यात्मिकता और नैतिकता टिकी हुई है। प्रश्न होता है कि धर्म-परम्पराओं की आत्मवादी एवं परमात्मवादी विचारधारा में प्राचीन धारा कौन-सी है ? आत्मवादी विचारों को प्रागैतिहासिकता यद्यपि धर्म के सम्बन्ध में प्राचीनता एवं अर्वाचीनता का आग्रह एक धर्मव्यामोह का ही रूप माना जाता है, इसलिये हमारी दृष्टि में इमका विशेष महत्व नहीं है । कोई विचार प्राचीन होने से ही गौरवशाली नहीं होता, उसमें तेजस्विता भी होनी चाहिये । तेजस्विता, जीवनोपयोगिता विचार को स्वयं ही गौरवमंडित बना देती है। फिर भी प्राचीनता की दृष्टि से भी यदि हम तटस्थ चिंतन करें तो यह सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट है कि मनुष्य का चिंतन आत्मवाद से परमात्मवाद की ओर बढ़ा है। वैदिक आर्यों ने जिस पुरुषार्थवादी पराक्रमी जाति के साथ समझौता कर आर्यावर्त में अपनी सत्ता फैलाई वह आर्यावर्त-भारतवर्ष की मूल जाति द्रविड़ जाति थी। इतिहास के आदि छोर को पकड़नेवाले गवेषकों का मत है कि उस जाति के विचारों में वे ही तत्व सक्रिय थे जो आज जैनधर्म में हैं। उस जाति की संस्कृति में श्रमणसंस्कृति के बीज थे। वैदिककाल का मनुष्य आत्मवादी मनुष्य है, पुरुषार्थवादी मनुष्य है। वह जीवन के प्रति, अपने कर्तव्य के प्रति आशावादी है, उत्तरदायित्ववादी है । आत्मा के उत्साह, बल, वीर्य और पुरुषार्थ में विश्वास करता है । उसमें विजेता की वृत्ति है, और यह विजेता की वृत्ति, पुरुषार्थवादीवृत्ति, आत्मवादी जैनधर्म की मूलवृत्ति है, श्रमणसंस्कृति का मूल स्वर है। इसलिये इतिहास को सिर्फ इतिहास की दृष्टि से नहीं, किन्तु मानव-मनोविज्ञान की दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म का आदि स्रोत आत्मवाद के उत्स से प्रवाहित हुआ है और उस आत्मवाद का उद्घोप है-'अप्पा कत्ता विकत्ता य' का शास्वत सिद्धान्त ! जैनधर्म का प्राचीन नाम आज जिसे हम जैनधर्म कहते हैं, प्राचीनकाल में उसका कुछ और नाम रहा होगा । 'जन' शब्द अर्वाचीन है, भगवान महावीर के समय में इसका बोधक
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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