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________________ ४ | तीर्थंकर महावीर का यह एक मौलिक भेद है, जो उन्हें दो धाराओं में विभक्त करता है-(१) ईश्वरवादी अर्थात् परमात्मवादी। (२) अनीश्वरवादी अर्थात् आत्मवादी । अनीश्वरवाद का अर्थ-ईश्वर की सत्ता में अविश्वास या उस परमतत्व की अस्वीकृति से नहीं, किन्तु ईश्वर को सृष्टियंत्र का संचालक मानने से है और ईश्वर को आत्मा से सर्वथा भिन्न तत्व न मानकर पूर्ण विकसित शुद्ध आत्मा को ही परमात्मा मानने की हढ़ धारणा से है। __ भारतीयेतर धर्मों में भी प्रायः ये दो भेद मिलते हैं-ईसाई व इस्लामधर्म, ईश्वरवादी धर्म हैं। चीन का कांगफ्यूत्सीधर्म (कन्फ्युसियस) और जरथुस्तधर्म ईश्वर की सत्ता के विषय में प्रायः मौन हैं, किन्तु वे आत्मा के विषय में भी कोई विशेष चिन्तन नहीं देते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है-वे आत्मा और परमात्मा की चर्चा से दूर हटकर चलने वाले सिर्फ नैतिकतावादी धर्म हैं, जिन्हें धर्म न कहकर एक प्रकार की नैतिक आस्था कह सकते हैं। इसलिये यहां पर उन धर्म-परम्पराओं की चर्चा भी अप्रासंगिक होगी। आत्मवादी धर्म ईश्वर को, परमात्मा को सृष्टि का निर्माता व शासक न मानने के कारण जैनधर्म को यदि अनीश्वरवादी धर्म कहा जाय तो इसमें कोई क्षोभ की बात नहीं है। किन्तु उसका वास्तविक ऐतिहासिक रूप अनीश्वरवाद में नहीं, आत्मवाद में है। इसलिये हमने प्रारंभ में ही धर्म-परम्पराओं को परमात्मवादी एवं आत्मवादी-दो श्रेणी में रखा है। जैनधर्म की मुख्य पृष्ठभूमि आत्मवाद हो है। जैनधर्म का यह दृढ़तम विश्वास है, शाश्वत सिद्धान्त है कि अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ ॥ आत्मा ही सुख-दुःख का करनेवाला है और वही उनके फल भोगनेवाला है एवं उनसे मुक्ति प्राप्त करनेवाला है। शुभमार्ग में प्रवृत्त आत्मा स्वयं का श्रेष्ठतम मित्र है, अश भमार्ग में प्रवृत्त आत्मा स्वयं का निकृष्टतम शत्र है। जो कुछ है, वह आत्मा ही है । दुःखदाता, दुःख:भोक्ता एवं दुखमोक्ता आत्मा ही है. ये तीनों बातें आत्माधीन हैं । परमात्मा, आत्मा और सृष्टि के बीच में कुछ भी दखल नहीं करता । वह तो निर्विकार, निरंजन, सिद्ध स्वरूप है। आत्मा का अन्तिम आदर्श है, अर्थात आत्मा की यात्रा की अन्तिम मंजिल है। इसलिये परमात्मा को आत्मा व सृष्टि के साथ जोड़ना उसके स्वरूप व स्वभाव के साथ अज्ञानपूर्ण कल्पना है ।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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