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________________ - जब परमसुषी श्री-मानतुङ्ग बसे संस्कृताचार्य पुनव अपनेको शक्तिहान, अल्पस, विद्वानो के उपहासयोग्य बताते हैं । तब भला मुझ जैसे हिंदी साहित्य के बच्चे का ठिकाना ही क्या? लेकिन वास्तव में यह भक्ति की शक्ति ही है, जिसने मुझसे मेरे माराध्य के प्रति ११११ छन्द लिखवा लिए । इन छन्दों को लिखने में ययपि तीन साल का अन्तराल लगा पर यथार्थ में देखा जाय तो मैंने प्रति साल के दिसम्बर, जनवरी और इनके पास-पास के कुछ दिन- इस तरह लगभग ६ माह ही इस रचना में लगाये मोर महीनों में इसका अवलोकन (अपवादरूप छोड़कर) तक नहीं हो पाया। मैंने अपने जीवन के २५ वें वसंत तक इसे पूरा करनेको सोची थी पर भाजके लोक रंजनाके व्यस्त गुग में परमाधिक काम कब मन चाहे हो पाते हैं ? प्रतः इसमें भी देरो हुई। पर केवल एक साल को ही किंतु मुझे हार्दिक परि नोष है कि इस रचना के लिखने के मिस ही मेरा समय प्रशुभोपयोग से शुभोपयोग मे लगा । और मैं माशा करता है कि जो महानुभाव भी इसका परायण करेंगे, उनके समय का भी शुभो. पयोग होगा, जो शुद्धोपयोग की भोर भी अग्रसर कर सकेंगा। • इस रचना की प्रेरणा को बात सुन लीजिए । जब मैं हाई स्कूमय इण्टरका विद्यार्थी या उस समय जब महात्मा तुलसी दास जीकृत रामचरित मानस', राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का 'साकेत' व 'हरिमोष जी का प्रिय-प्रवास' मादि सु-काम्य अन्य पड़े तो मुझे लगा कि तपः प्रधान श्रमण संस्कृति के प्रचंड मातभ० महावीर पर भी किसी महत्वपूर्ण काव्यग्रन्य का सजन होना चाहिए। उस समय २० छन्दों की एक रचना म. महाबोर पर-रच डाली और उसको एक-दो न प्रायोजनों पर सुनाया। श्रोतामों ने मंत्रमुग्ध होकर सुना और मेरी लाषा भी की। साधा तो मुझे प्रत्यानुरूप पसन्द नहीं प्राई पर बोतामों मंगपोकर सुवना बकर अच्छा लगा। बाद को यह
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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