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________________ परिवदित रचना .. छन्दों की हो गई ।बी० ए० के बयन के लिए मैं प्रयाग के जैन छात्रावास में रहा । इसी समय भारवीय ज्ञान पीठ, काशी से प्रकाशित श्री अनूपशर्मा का 'वर्धमान महाकाव्य का विज्ञापन पढ़ा। तभी छात्रावास के पुस्तकालय में कुछ पुस्तकें भी मंगाई जाने वाली थीं। मैंने उक्त पुस्तक का नाम दिया । पुस्तक प्राई और सबसे पहले मेरे हाथ पाई। बड़े उत्साह से पढ़ना शुरू किया। पढ़ते-पढ़ते उत्साह तिरोहित होने लगा और उसका स्थान क्षोभ ने ले लिया। बात यह कि भंटल तपस्वी तीर्थकर भ० महावीर से सम्बन्धित जो काव्य हो उसका प्रधान रस अंगार हो यह कभी भी उपयुक्त नहीं होसकता । शैली परम्परागत शास्त्रीय हो पर विषयानुरूप न हो तो वह प्रमुपयुक्त ही मानी जायगी। दूसरे जैनधर्म के महान उन्नायक के मुखारविन्द से ही जैन सिद्धान्तों के विपरीत सिद्धान्तों जैसे सष्टि कृतिस्ववाद प्रादि का प्रतिगदन कराना भी न्याय-संगत नहीं जान पड़ा । सामयिक पत्र-पत्रिकामों के पालोचना स्तम्भ में इस बात की चर्चाएं भी हुई। फिर भी 'वर्षमान' बड़े परिश्रम से रची मई संस्कृत वर्णवृत्तों की प्रच्छो रचना है। __ यथार्थ बात यह कि म. महावीर के जीवन को देखते हुए तो उनसे सम्बंधित रचना के प्रकृतरूप में शान्तरस, करुणाईस ववीररस (विशेषकर धर्मवीर रस) का परिपाक होना ही श्रेयष्कर है । कहना न होगा कि अब जब मैं तटस्थ होकर अपनी इस रचना को देखता है तो प्रतीत होता है कि इसमें प्रसंगानुरूप उपयुक्त रसों का परिपाक स्वभावतः हो गया है। कहीं-कहीं सीमित अङ्गार व अन्य रसों को भी छाप है। भक्ति तो है हो । . बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात जब में परपर प्रागया, तब छात्रावास के कक्ष-साधी (Roomi Partnery st भोलानाथ गुप्त का कार्ड पाया जिसके एक प्रश का प्राशय यह बा कि पाप भ० महावीर पर काव्य लिखना चाहते हामिल
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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