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________________ १०६ तीर्थङ्कर भगवान महावीर इस भौतिक जग में भी रहता, शव रूप न जो दुख उद्दोपक । पुद्गल अणु स्वयं विखर जाते । रहते जो प्रात्मा के बाधक ॥ इसलिए प्रशम मुद मृदुल लहर, सब ओर थिरकती-सी रहती । प्रात्मिक उन्नति की वेला में, प्राह लाद पूर्ण संस्थिति रहती ॥ आनन्दमयी अभिनय होते, जिनमें शाश्वत-प्रानन्द झलक । झीनी सुखमयो झलक पड़ती, लखते जिसको दर्शक अपलक ॥ सन्मति पग-चिह्नों के अनुचर, सब रंक-राव, उन्नत-अवनत । अन्तर कालुष्य मिटाने को, हृद-दीप जलाने को उद्यत । लो, शनैः शनैः दिन बीत गया, अलसाई सन्ध्या मुस्काई । निर्वाणज्योति को प्राभा में, ____ आलोक सु-चोर पहन आई । सब नगर-डगर-घर दीप जले, : प्रारम्भ हो गई दीपावलि ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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