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________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७५ जैसी कि आपकी विमल छांह, अन्यत्र कहीं यह जग पाता ? संस्मरण मात्र से होता है, गुरु पाप-ताप का वेग शान्त । जैसे फुहार से मिट जाती, __ अति ग्रीष्म-तपन की जलन क्लान्त ॥ प्रति रोग शोक जल अग्नि प्रलय, भोषण रण विपति बार बर्बर । तब भक्ति समक्ष न रुक पाते, ज्यों भगता तम पा ज्योति जगर ॥ इस भांति वीर का विशद् विरुद, करते अनुभव कहते प्रशस्त । संस्तवन भजन या कीति-कथन, जय-माल-गान में लोग व्यस्त ॥ प्रभु वीर चिन्तवन-चर्चा में, भवि जीव समय यों विता रहे। सन्मति निर्वाण-प्रसंग आज, निर्वाण पर्व हैं मना रहे ॥ निर्वाण-न कोई गम का क्रम, शाश्वत सुख का शाश्वत उद्गम । समरसता का प्रक्षय विहान, चिर दर्श, नान, बल, सुख-संगम ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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