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________________ सप्तम् सर्ग : केवलज्ञान एवं धर्मोपदेश १५५ कल्पवृक्ष भो पास दार्शनिक-सा संस्थित है। चंवर दुर रहे अवसर अतिशत मङ्गलयुत है । किन्तु न अब तक हिलो तनिक भी गिरा वीरको। हुई न वर्षा भव्य-जनों पर वचनामृत की। सुबह गया मध्याह्न काल भी बीत गया अब । तृतीय समय अपराह्न सभा का भो लो नीरव ॥ उठा इन्द्र निज हाथ जोड़कर, खड़ा हुआ तब। फिर स्व-ज्ञान से बतलाया, जिन-मौन-हेतु सब ।। 'यद्यपि है बहु अङ्ग ज्ञान के धारी मुनिवर । किंतु प्राप्त उपयुक्त न अबतक कोई गणधर ॥ अतः आप सब रखें धैर्य, कुछ काल शांत हो। प्राप्त न जब तक विपुल बुद्धि.गणधर प्रशांत हो।' और गया देवेन्द्र खोजने, जन मेधावी । हो पाए जो मुख्य मुख्यतम गणधर भावी ॥ वह विदेह में गया जहाँ श्रीमन्धर स्वामी । समवशरण में विद्यमान, अहंत निष्कामो॥ ज्ञात किया सर्वज्ञ देव से, इन्द्रभूति द्विज । जो याज्ञिक पर निकट भव्य, दुर्मति देगा तज ॥ होगा गणधर प्रमुख वीर के, समवशरण में । पाएगा सम्यक् दर्शन जो, वीर-चरण में । आया गोर्वर ग्राम मगध में, इन्द्र सोचता । इन्द्रभूति गौतम को पाया, जीव होमता ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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