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________________ तीर्थकर भगवान महावीर . इसके भीतर मध्य भाग में तीन पीठ पर । श्री मण्डप है बीच कि जिसके गंध कुटी वर ॥ जिसके चारों ओर सभागृह, बारह दिखते । जिनमें बैठ धर्म-ध्वनि सुन भवि भव-भय हरते ॥ चार समाएँ साधु प्रायिका, पशु मानव की । शेष कल्प,भुव, व्यन्तर ज्योतिष देवि-देव की ॥ निज थानों पर जमें जीव भवि, बाट जोहते। चातक-से, ध्वनि स्वांत बूद की प्रोर देखते ।। नवल कली सी भली बनी उस गंधकुटी पर । अन्तरीक्ष विम वीर विराजे, विमा-विभव वर ।। शिर पर शोभित तीन छत्र अद्भ त, छवि वाले। लगते हैं सर्वज्ञ सर्वदर्शीश निराले ॥ हैं आहार न नीहारों को कुछ बाधाएं। हैं सशरीरी ईश न जग की कुछ विपदाएँ । नख केशों की वृद्धि हुई इति, जीवन दमका। छाया प्रतिछाया न वहां पर प्रभ तन चमका ॥ किरणावलियां फूट रहीं, जिन-कंचन तन से। उदित हुमा न्यों सूर्य विमामय उदयाचल से ॥ मधु पराग-सी प्रभु शरीर से गंध निकलती। वातावरण सभी अनुरंजित सुरभि महकती॥ दुन्दुभि बाजे झनन-मनन से बजते रहते। मंद पवन इठलाता नम से पुष्प बरसते ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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