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________________ शुम, सन्देश और सम्मतियां यु का विषय है । इस रूप में तुम्हें देखकर मेरी माया साकार हो उठी है। मुझे पूर्ण विश्वास है तुम्हारी यह सफलता शीघ्र ही कोई अन्य श्रेष्ठतम काव्य हिंदी जगत को भेंट कर सकेगी। परमेश तुम्हारी प्रतिभा को निरन्तर निखार दें। तुम पर मुझे गर्व है और मेरे इस गर्व के गौरव की रक्षा ही मेरे लिए सबसे बड़ी गुरु दक्षिणा है। रचना पढ़कर बहुत कुछ लिखने की इच्छा हुईमो परन्तु स्वास्थ्य साथ नहीं देता।" (पत्र ता० १६-१-६०) श्री भोलानाथ जी गुप्त, एम. ए., एल.एल.बी. एडवोकेट, दुद्धी:"प्रापकी भेंट तो मुझे काफी पहले मिल गई थी लेकिन उसका रसास्वादन देर में कर सका। मैंने पापका हिंदी काव्य 'तीर्थकर भगवान महावीर' पायोपान्त पढ़ा। इसे महाकाव्य कहा जाय अथवा खंडकाव्य-जहां तक मेरा अपना विचार है, इसमें महाकाव्य के शास्त्रीय सभी गुरा विद्यमान है। जहां तक इसके प्राकार का सवाल है उनके लिए मैं यह सोचता है कि यदि किसी व्यक्तिमें मानवोचित स्वाभाविक सभी मुरण वर्तमान हों तो फिर क्या उसका प्राकार का छोटा होना हो उसे मानव की संज्ञा देने में प्रडंगा लगा सकता है? यदि नहीं तो फिर मापकी इस रचना को भी महाकाव्य कहा बाय तो फिर कोई भत्युक्ति नहीं। मुझे खुशी है कि मापने इतनी कम पायु में इतनी सफल रचना की है। जिस लक्ष्य को सामने रख कर मापने इसकी रचना की है उस लक्ष्य की मोर भापकी लेखनी स्वाभाविक रूप बढ़ती चली गई है। पंचम सर्ग तो इस पूरे काव्य की जान ही है। प्रापको इसे रचना में प्रवाह है तथा बाल-मीमा बाप प्रवाब देना बापावा पटना ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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