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________________ तीपंकर भगवान महावीर 'प्रार्य! मब तो व्यर्थ लगता, व्याह हित इनको मनाना । ये विरागी, रोककर अब, व्यर्य इनका दिल दुखाना ॥" सुखी प्रब हो नहीं सकते, ये गृहस्पो जाल में हैं । और इनको देख उन्मन, हम न रह सकते सुखी हैं ॥" ___'शुभे कहती ठोक इनका, साम्य-ऋजुता के पगा मन । और भोगों के घृणित जग, से भगा इनका सु-चेतन ॥ नोड़ शाश्वत प्राप्ति-हित हक, है हुमा इनका सु-जागृत । दुखी जीवों को सु-करुणा दान देने को समुद्यत ॥ मपति का सुन यह सुउन्नर, राज्ञिपर बोलो स्व-सुत से । 'मैं नहीं अब रोक सकती, पुत्र प्रिय तुमको सु-पथ से ॥ किन्तु ममता एक मेरी, जग रहो है कष्ट कसे ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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