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________________ पंचम सर्ग: तरुणाई एवं विराग ११९ मग्नि यह वह जो घषकती, हव्य हित हो हर समय में ॥ है बुझी कब प्यास तृष्णा, प्राणियों की किसी विधि मो। गहण करता सरित जल नित, तृप्त पर जल-निधि कमी भी। चक्रवर्ती मो नपति गण, कहां इस जग में रहे हैं। मृत्यु से ही हार खाकर, अन्त में जग से गये हैं ॥ भाग्य से पाया कहीं यह मनुज-तन का उचित साधन । क्यों न फिर मैं कर्म-क्षय हित, करूं मुनिव्रत का प्रसाधन ॥ इस तरह से जीव के है, छूट सकते हैं कर्म सारे । पहुंच सकता इस तरह वह, विश्व-जल-निषि के किनारे ॥' नपति त्रिशला देखते मुल. मौन आपस में हुये प्रब । कहा नप से किन्तु सहसा, राशिबर ने शान्त नीरव ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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