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________________ ८. ४.] प्रकृतिबन्ध के मूल भेदोंका नामनिर्देश ३७७ समझ में नहीं आती। इसलिये निष्कर्ष यही निकलता है कि तेरहवें गुणस्थान में कवलाहार नहीं होता। मात्र योग द्वारा अबुद्धिपूर्वक जो नोकम वर्गणाओं ग्रहण होता है उन्हीं से शरीर का पोषण होता रहता है। सबसे बड़ी गलती यह हुई है कि अधिकतर लोगों का यह ख्याल हो गया है कि अमुक कर्म से ऐसा होता है। पर वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है। बात यह है कि जिस समय जीव की जैसी अवस्था होती है उस समय उस अवस्था के निमित्तरूप कर्म का उदय होता है। इन दोनों का ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। __अब प्रश्न यह होता है कि तेरहवें गुणस्थान में ऐसी कौन सी अवस्था है जिसके निमित्तरूप असातावेदनीय कर्म का उदय होता है। सो इसका यह समाधान है कि वहाँ आत्मा की सुख दुख रूप ऐसी कोई अवस्था नहीं है जिसमें सातावेदनीय निमित्त हो या असतावेदनीय निमित्त हो। फिर भी वहाँ इनका उदय होता है सो इसका यह कारण है कि जीव के प्रतिजीवी गुणों का घात वहाँ भी हो रहा है। उनमें से वेदनीय कर्म जीव के अव्यावाध गुण का घात करता है। जीव के गुण के घात का मुख्य कारण उदय और उदीरणा है। अब यदि वहाँ इसका उदय नहीं माना जाता है तो अनुजीवी गुणों की प्रकट हुई शुद्ध पर्याय के समान वहाँ इस गुण की भी शुद्ध पर्याय माननी होगी। पर ऐसा है नहीं। यही कारण है कि तेरहवें गुणस्थान में भी दोनों प्रकार के वेदनीय का उदय माना गया है। सुधादि के द्वारा बाधा का पैदा होना स्थूल पर्याय है ऐसी पर्याय अरिहन्त के नहीं होती पर अव्याबाध गुण के घात से जो विकारी पर्याय होती है उसका सद्भाव अरिहन्त के भी पाया जाता है। यहाँ वेदनीय कर्म का यही कार्य है और इस कार्य को बतलाने के लिये वहाँ दोनों प्रकार के वेदनीय का उदय माना गया है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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