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७. २०-२२.] अगारी व्रती का विशेप खुलासा ३४५
समाधान-राग, द्वेष या मोहवश विष, शस्त्रादि द्वारा अपना नाश करना स्ववध है। यह बात सल्लेखना में नहीं देखी जाती इसलिये इसे स्ववध मानना उचित नहीं है । सल्लेखना व्रत तभी लिया जाता है जब लेनेवाला अन्य कारणों से निकट भविष्य में अपने जीवन का अन्त समझ लेता है। जैसे व्यापारी अपने माल की हर प्रकार से रक्षा करता है और उसके विनाश के कारण उपस्थित हो जाने पर वह उनको दूर करने का प्रयत्न करता है। इतने पर भी यदि वह सबकी रक्षा करने में अपने को असमर्थ पाता है तो उसमें जो बहुमूल्य वस्तु होती है, उसकी सर्वप्रथम रक्षा करता है इसी प्रकार गृहस्थ भी व्रत
और शील के समुचित रीति से पालन करने के लिये शरीर का नाश नहीं करना चाहता। यदा कदाचित् शरीर के विनाश के कारण उपस्थित हो जाने पर वह उनको दूर करने का प्रयत्न करता है। इतने पर भी यदि वह देखता है कि मैं शरीर की रक्षा नहीं कर सकता तो वह अपने आत्मा की उत्तम प्रकार से रक्षा करते हुए अर्थात् आत्मा को राग, द्वेष और मोह से बचाते हुए शरीर का त्याग करता है इसलिये इस सल्लेखना व्रत को स्वहिंसा नहीं माना जा सकता।
शंका-जलसमाधि, अग्निपात आदि अनेक प्रथायें अन्य सम्प्रदायों में प्रचलित हैं उनमें और सल्लेखना में क्या अन्तर है ?
समाधान-जब यह निश्चय हो जाता है कि मेरा मरण अतिनिकट है नब सल्लेखना व्रत लिया जाता है सो भी वह शरीरादि बाह्य पदार्थों से राग, द्वेप और मोह को कम करने के लिये ही लिया जाता है, कुछ अकाल में मरने के लिये नहीं, किन्तु यह बात जलसमाधि और अग्निपात आदि प्रथाओं में नहीं देखी जाती इसलिये उनमें और सल्लेखना में बड़ा अन्तर है । सल्लेखना स्पष्टतः आत्मशुद्धिका एक प्रकार है जब कि जलसमाधि
आदि स्पष्टतः आत्मघात हैं। माना कि जलसमाधि आदि में अर्पण की भावना काम करती है पर यह क्षणिक उद्वेग होने से एक तो अन्त