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________________ अब्रह्म का स्वरूप ३२७ जीवन में कमजोरी हैं और होती रहेंगी पर न तो उनपर परदा डालना ही उचित है और न उनके अनुसार प्रवृत्ति करना ही उचित है यह उक्त कथन का भाव है। जो गृहस्थ या मुनि अपनी अपनी मर्यादा के बाहर कमजोरी के शिकार होते हैं और उसे छिपाते हैं वे चोरी के अपराधो हैं ऐला यहाँ समझना चाहिये ॥ १५ ॥ अब्रह्म का स्वरूपमैथुनमब्रह्म ॥१६॥ मैथुन अब्रह्म है। स्त्री और पुरुष का जोड़ा मिथुन कहलाता है और राग परिणाम से युक्त होकर इनके द्वारा की गई स्पर्शन आदि क्रिया मैथुन है। ग्रह मैथुन ही अब्रह्म है। यद्यपि यहाँ मिथुन शब्द से स्त्री और पुरुष का जोड़ा लिया गया है तथापि वे सभी सजातीय और विजातीय जोड़े जो कामोपसेवन के लिये एकत्र होते हैं मिथुन शब्द से लिये जाने चाहिये, क्योंकि आज कल अप्राकृतिक कामोपसेवन के ऐसे बहुत से प्रकार देखे जाते हैं जिनकी पहले कभी कल्पना ही नहीं की गई थी। इसी प्रकार केवल पुरुष या केवल स्त्री का कामराग के आवेश में आकर जड़ वस्तु के अवलम्बन से या अपने हस्त आदि द्वारा कुटिल काम क्रिया का करना भी अब्रह्म है। यद्यपि यहाँ जोड़ा नहीं है तथापि दो के संयोग से जो कामसेवन किया जाता है वह न्यूनाधिक प्रमाण में अन्य अचेतन पदार्थ के निमित्त से या हस्तादिक के निमित्त से सध जाता है इसलिये ऐसा मिथ्याचार अब्रह्म ही है। इससे स्वास्थ्य, सम्पत्ति, सद्विचार, सदाचार आदि अनेक सद्गुणों की हानि होती है। शंका-मैथुन को ही अब्रह्म क्यों कहा है ? समाधान-जिसके सद्भाव में अहिंसा आदि धर्मों की वृद्धि होती है वह ब्रह्म है । मैथुन एक ऐसा महान् दुगुण है जिसके जीवन में घर कर लेने पर किसी भी उत्तम गुण का वास नहीं रहता, इससे उत्तरोत्तर
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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