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________________ ७. १३.] हिंसा का स्वरूप ३२१ उत्तरोत्तर उसकी महत्त्वाकांक्षाएं बढ़ती जाती हैं जिससे संसार में एकमात्र घृणा और द्वेष का ही प्रचार होता है। वर्तमान काल में जो विविध प्रकार के वाद दिखलाई देते हैं वे इसी के परिणाम हैं। संसार ने भीतर से अपनी दृष्टि फेर ली है। सब बाहर की ओर देखने लगे है । जीवन की एक भूल से कितना बड़ा अनर्थ हो रहा है यह समझने और अनुभव करने की वस्तु है। यही वह भूल है जिसके कारण हिंसा पनपकर फूल फल रही है। शास्त्रकारों ने इस हिंसा के दो भेद किये हैं-भावहिंसा और द्रव्य हिंसा । भावहिंसा वही है जिसका हम ऊपर निर्देश कर आये है। मानो द्रव्य हिंसा में अन्य जीव का विघात लिया गया कारण . " है। यह भावहिंसा का फल है इसलिये इसे हिंसा " कहा गया है। कदाचित् भावहिंसा के अभाव में भी द्रव्यहिंसा होती हुई देखी जाती है पर उसकी परिगणना हिंसा की कोटि में नहीं की जाती है। हिंसा का ठोक अर्थ आत्म परिणामों की कलुषता ही है । कदाचित् कोई जड़ पदार्थ को अपकारी मानकर उसके विनाश का भाव करता है और उसके निमित्त से वह नष्ट भी हो जाता है। यहाँ यद्यपि किसी अन्य जीव के द्रव्य प्राणों का नाश नहीं हुआ है तो भी जड़ पदार्थ को छिन्न भिन्न करने में निमित्त होनेवाला व्यक्ति हिंसक ही माना जायगा; क्योंकि ऐसे भावों से जो उसके आत्मा की हानि हुई है उसी का नाम हिंसा है। __संसारी जीव के कषायमूलक दो प्रकार के भाव होते हैं-रागरूप और द्वेषरूप। इनमें से द्रुपमूलक जितने भी भाव होते हैं उन सबकी परिगणना हिंसामें की जाती है। कदाचित् ऐसा होता है जहाँ विद्वेष की ज्वाला भड़क उठने का भय रहता है। ऐसे स्थल पर उपेक्षा भाव के धारण करने की शिक्षा दी गई है। उदाहरणार्थ-कोई व्यक्ति अपनी स्त्री, भगिनी, माता या कन्या का अपहरण करता है या धर्मायतन का
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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