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________________ २०६ तत्त्वार्थसूत्र [५. ४-७. अपनी संख्या का उल्लंघन नहीं करते, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। किन्तु इनमें धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य ही अरूपी हैं पुदगल द्रव्य नहीं । वह तो रूपी है। इसलिये इसकी अपेक्षा धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्यों में ही साधर्म्य पाया जाता है, पुद्गल द्रव्य का वह वैधर्म्य है। इसी प्रकार पुद्गलों में रहनेवाला रूपित्व इन धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का वैधर्म्य है। शंका-नित्यत्व और अवस्थितत्व में क्या अन्तर है ? समाधान-अपने अपने विशेप और सामान्य स्वरूप से कदाचित भी च्युत होना नित्यत्व है और द्रव्यों की जितनी संख्या है उसे उल्लंघन नहीं करना अर्थात् नये द्रव्य की उत्पत्ति न होकर द्रव्य जितने हैं उतने कायम रहना अवस्थितत्व है । जैसे धर्म द्रव्य अपने गतिहेतुत्वात्मक सामान्य धर्म को कभी नहीं छोड़ता, इसलिए वह नित्य है। इसी प्रकार सभी द्रव्यों में नित्यत्व घटित कर लेना चाहिये । तथा सब द्रव्य छह हैं इस प्रकार छह रूप संख्या का कोई भी द्रव्य त्याग नहीं करता इसलिए वे अवस्थित हैं। इसका आशय यह है कि वे अपने अपने स्वरूप में स्थिर रहते हुए भी अन्य वस्तु के स्वरूप को नहीं प्राप्त होते । जैसे अपने स्वरूप में स्थित रहता हुश्रा भी धर्म द्रव्य कभी भी अधर्मादि अन्य! द्रव्यों के स्वरूप को नहीं प्राप्त होता। यहाँ द्रव्यों को नित्य कहने से उनका शाश्वतपना सूचित किया गया है और अवस्थित कहने से परस्पर का असांकर्य सूचित किया गया है। अभिप्राय यह है कि धर्मादिक द्रव्य कायम रहते हुये भी उनमें अनेक प्रकार का परिणमन होता है, इसलिये अवस्थित : पद के देने से यह ज्ञात होता है कि धर्म, अधर्म. आकाश और काल ये न कभी मूत होते हैं और न उपयोग रूप, इसी प्रकार' जीव कभी अचेतन नहीं होता और पुद्गल कभी चेतन तथा अमूर्त नहीं होता । वे सदा जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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