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________________ २.२५.-३८.] अन्तराल गतिसम्बन्धी विशेष जानकारी १०७ वचनयोग और काययोग। इनमें से मनोयोग और वचनयोग क्रम से मनः पर्याप्ति और वचनपर्याप्ति के पूर्ण होने पर ही होते हैं। काययोग के सात भेद हैं - औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिकमिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग। इनमें से औदारिक काययोग,वैक्रियिक काययोग और आहारक काययोग ये तीन योग भी पर्याप्त अवस्था में ही सम्भव हैं। औदारिक मिश्रकाययोग वैक्रियिक मिश्रकाययोग और आहारक मिश्रकाययोग ये तीनों अपने अपने शरीर ग्रहण के पहले समय से लेकर जब तक जीव अपर्याप्त रहता है तब तक होते हैं । इसमें भी औदारिक मिश्र काययोग केवली जिनके कपाट समुद्धात के दोनों समयों में भी होता है। कार्मण काययोग विग्रहगति में और केवली जिनके प्रतर समुद्धात के दोनों समयों में और लोकपूरण समुद्घात के समय में होता है। यहां जब जीव पूर्व शरीर का त्याग करके न्यूतन शरीर को ग्रहण करने के लिये गति करता है किन्तु यदि वह गति मोड़ेवाली होती है तो वहां जीव की परिस्पन्दरूप क्रिया में कौन सी वर्गणाएं निमित्त पड़ती हैं यह प्रश्न है। पूर्व शरीर का त्याग हो जाने से उसके निमित्त से प्राप्त होनेवाली वर्गणाएं तो निमित्तरूप हो नहीं सकती, क्योंकि उस समय उनका सद्भाव नहीं। भाषावर्गणाएं और मनोवर्गणाएं भी निमित्त नहीं हो सकती, क्योंकि उस समय उनका ग्रहण नहीं होता। हां अन्तराल में कार्मण शरीर भी रहता है और कामगवर्गणाओं का ग्रहण भी होता है, इसलिये वहाँ जीव के आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द में कामणवर्गणाएं निमित्तरूप होती हैं ऐसा जानना चाहिये। शंका-क्या यह सही है कि जो जीव ऋजुगति से जन्मता है वह पूर्व शरीरजन्य वेग से न्यूतन शरीर को प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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