SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ तत्त्वार्थसूत्र [१.३१.३२. रहते तो हैं पर अभिभूत हो जाने के कारण वे अपना काम नहीं कर पाते वैसे ही केवलज्ञान के समय मतिज्ञान आदि का सद्भाव मान लेने में क्या आपत्ति है ? समाधान-मतिज्ञान आदि चार ज्ञान क्षायोपशमिक भाव हैं और क्षायोपशमिक भाव अपने अपने आवरण कर्म के सद्भाव में ही होते हैं। यदि केवलज्ञान के समय मतिज्ञान आदि का सद्भाव माना जाता है तो तब उनके आवरण कर्मों का सद्भाव भी मानना पड़ता है। किन्तु तब आवरण कर्मो का सद्भाव है नहीं, इससे सिद्ध है कि केवल ज्ञान के समय मतिज्ञान आदि चार ज्ञान नहीं होते ॥ ३० ॥ मतिश्रादि तीन ज्ञानों की विपर्ययता और उसमें हेतुमतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥३१॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलव्धेरुन्मत्त वत् ॥ ३२ ॥ मति, श्रुत और अवधि ये तीन विपर्यय अर्थात् अज्ञानरूप भी हैं। क्योंकि उन्मत्त के समान वास्तविक और अवास्तविक के अन्तर के "विना इच्छानुसार ग्रहण होने से उक्त ज्ञान विपर्यय होते हैं।। जीव की दो अवस्थाएं मानी हैं सम्यक्त्व अवस्था और मिथ्यात्व अवस्था। इनमें से सम्यक्त्व अवस्था में जितने भी ज्ञान होते हैं वे सम्यक्त्व के सहचारी होने से समीचीन कहलाते हैं और मिथ्यात्व अवस्था में जितने भी ज्ञान होते हैं वे मिथ्यात्व के सहचारी होने से असमीचीन कहलाते हैं। पांच ज्ञानों में से मनःपर्यय और केवल ये दो ज्ञान तो सम्यक्त्व अवस्था में ही होते हैं किन्तु शेष तीन ज्ञान उक्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं इसलिए ये ज्ञान और अज्ञान दोनों रूप माने गये हैं। यथा-मतिज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुतज्ञान, ताज्ञान, अवधिज्ञान, अवधि अज्ञान । अवधि-अज्ञान का दूसरा नाम विभङ्गज्ञान भी है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy