SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निका पान । सर्व अर्थग्रहणका प्रसंग आवै। अर्थ नाम धनका भी है। तथा अर्थ नाम प्रयोजनका भी है । तथा सामान्यअर्थका भी नाम है। तिनिका भी श्रद्धान सम्यग्दर्शन ठहरै। तातै तिनितें भिन्न दिखावनेके आर्थि अर्थका तत्त्व विशेपण कीया | है। बहुरि प्रश्न- जो तत्त्वश्रद्धान ऐसा ही क्यों न कह्या ? ताका उत्तर-ऐसें कहै अनर्थ जे सर्वथैकांतवादिनिकार | कल्पित ताका प्रसंग आवै है। तथा भावमात्रका प्रसंग आवै है। केई वादी सत्ता तथा गुणत्व तथा कर्मत्व इनिकू ही सर्वार्थ सिद्धि 1: तत्त्व कहै हैं। अथवा तत्त्व एकपणांहीकं कहै हैं, ताका प्रसंग आवै । केई ऐसे कहै है- जो सवर्वस्तु एक पुरुप ही टी का 151 है। तातै तिनि सर्वनिः भिन्न अनेकांतात्मक वस्तका स्वरूप है, ऐसें जनावनेके अर्थि तत्त्वार्थका ग्रहण कीया है। RI ऐसा तत्त्वार्थश्रद्दानस्वरूप सम्यग्दर्शन है, सो दोय प्रकार है। एक सरागसम्यक्त्व, एक वीतरागसम्यक्त्व । तहां प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य इनि च्यारि भावनिकार प्रगट होय; सो तो सरागसम्यग्दर्शन है। तहां अनंतानुबंधी कपायकी चौकडी संबंधी रागद्वेपादिकका तथा मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्वका जहां उदय नांही ताळू प्रशम कहिये। बहुरि पंचपरिवर्तनरूप जो संसार तातें भय उपजना ताकं संवेग कहिये । बहुरि उस स्थावर प्राणीनिवि दया होनां ताकू अनुकंपा कहिये । बहुरि जीवादि तत्त्वनिवि युक्ति आगमकार जैसाका तैसा अंगीकार करनां माननां ताडू आस्तिक्य कहिये । ए च्यारी चिह्न सम्यग्दर्शनकू जनावै हैं, ए सम्यग्दर्शनके कार्य है । तातें कार्यकरि कारणका अनुमान होय है । तहां अपने तो स्वसंवेदनते जाने जाय है । अर परके कायवचनके क्रियाविशेपतें जाने जाय है । सम्यर्शनविनां मिथ्यादृष्टीके ऐसे होय नांही । इहां कोई कहै, क्रोधका उपशम तौ मिथ्यादृष्टीकै भी कोईकै होय है, ताकै भी प्रगम आवै । तारूं कहिये-मिथ्याष्टिनिकै अनंतानुबंधी मानका उदय है। सर्वथा एकांततत्त्व मिथ्या है, तावि सत्यार्थका अभिमान है। बहुरि अनेकांतात्मकतत्त्ववि द्वेपका अवश्य सद्भाव है । बहुरि स्थावरजीवनिका घात निशंकपणे करै है । तातै प्रशम भी नाही, अर संवेग अनुकंपा भी नांही । कोई कहै- स्थावरजीवनिका घात तो अज्ञानतें सम्यग्दृष्टीकै भी होय है, तौ ताकै अनुकंपा कैसे कहिये ? ताका उत्तर- जो सम्यग्दृष्टीकै जीवतत्त्वका ज्ञान है, सो अज्ञानतें तौ वातवि4 प्रवृत्ति नाही । चारित्रमोहके उदयतें अविरतिप्रमादतै घात होय, तहां एह अपनां अपराध मानै । ऐसा तो नाही, जो ए जीव ही नाही तथा जीवनिके घाततें कहा बिगाड है ? । जो ऐसा मान, तो मिथ्यात्वका ही सद्भाव है॥ वहरि कह, जो वाकै अपने माने तत्त्ववि आस्तिक्य है। ताका उत्तर-मिथ्यादृष्टि तत्त्वको सर्वथा एकांत श्रद्ध है। । तहां आस्तिक्य है सो मिथ्यात्व अतिढ भया। जातें सर्वथा एकांत वस्तुका स्वरूप नाही। प्रत्यक्षादि प्रमाणकरि बाधित है। तातै जे सर्वथा एकांत श्रद्धान करै हैं ते अहंतके मत वाद्य है, मिथ्यादृष्टी है, नास्तिक है। बहरि प्रश्र-जो सम्य
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy