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________________ आगें पूछे, कहा देव आयुका आश्रव एतावन्मात्रही है ? आचार्य कहै हैं, नाहीं, और भी है ऐसे सूत्र कहै हैं सर्वार्थ निका सिद्धि __टी का पान २६१ ॥ सम्यक्त्वं च ॥ २१॥ याका अर्थ-- सम्यक्त्व भी देव आयुके आश्रवकू कारण है । इहां देवका विशेष न कह्या, तौ कल्पवासीहीका ग्रहण करना । जाते न्यारा सूत्र ऐसें जनावनेकूही किया है । इहां प्रश्न, जो, पहले सूत्रमें सरागसंयम संयमासंयम कहे । तिनकै भवनत्रिककी आयुका भी आश्रवकी प्राप्ति आवै है । जातें इहां सम्यक्त्वका सूत्र न्यारा कह्याही है । ताका समाधान, जो, यह दोष नाही है । जाते सम्यक्त्वका अभाव जाकै होय ताके सरागसंयम संयमासंयम ए नामही न पावै हैं, ते दोऊ भी इस सूत्रमें गर्भित कर लेणे । इहां कोई पूछे, सम्यक्त्वते कल्पवासी देवहीका आयु बंधै ऐसा नियम कह्या तहां तीव्र सम्यग्दृष्टिनिका तौ समझै । बहुरि जे अव्रती सम्यग्दृष्टि हैं तिनके मिथ्यादृष्टीकेसे बहुआरंभादिक कार्य देखिये हैं, ताकै कैसे नियम संभदै ? तथा राजा श्रेणिक क्षायिकसम्यक्त्वी अपघातते मरण किया, तातें नरक गया ऐसें पुराणमें लिखै है सो कैसे समझें? ताका उत्तर, जो, इहां मनुष्यतिर्यचकी अपेक्षाकरि नियम है । देव नारकीनिके सम्यक्त्व होते भी मनुष्य आयुका बंध हो है । सम्यग्दृष्टि देव नारकी मनुष्यही उपजै हैं । बहुरि मनुष्य तिर्यचकै देवायु बंधै है । तिनके मिथ्यात्वके अभावते जीवतत्ववि अजीवतत्वकी श्रद्धाका अभाव भया है । त्रसस्थावर जीवनिकू सर्वज्ञके आगम अनुसार श्रद्धान किया है ॥ बहुरि अनंतानुबंधीकषाय मिथ्यात्वकी लार लगी है । सो तिसके विशेष क्रोध मान माया लोभका अभाव भया है । तातें तिस अनंतानुबंधिसंबंधी हिंसाका अभाव है। सर्व जीवनितें अंतरंगवि करुणाभाव है । सर्वकू आप समान जाने है । कदाचित् अप्रत्याख्यानावरणके तीव्र उदयतें आरंभादिकवि प्रवर्ते है। तहां अपने तीव्र अपराध जाने है । तीव्र उदयनै कार्यका अभाव न किया जाय है । तहां भी न्याय अन्याय लौकिकसंबंधी आचार विचार बहुत करै है। अपनी जाणिमें अन्यायवि नाही प्रवतॆ है। शुद्धवृत्ति न्यायने लिये आरंभादिक करै है । तामें हिंसा होय है ताकू ऐसा जानै है, जो, यामें दोष नाहीं; हमारी पदवी है ऐसे स्वच्छंद निःशंक परिणमन करै है। ऐसे होते अतरंगके कषाय निपट हलके हैं । तातें कल्पवासी देवहीका आयु बंधै है ।। ___बहुरि श्रेणिक राजा पूर्वं मोटा अपराधते सप्तम नरकका आयु बंध्या था, सो आयुबंध भये पीछै पलटें नाहीं, तातें ताके महात्म्यतें बव्हायुका अपकर्षण करि स्थिति घटाई प्रथमपृथ्वीके पहले पाथडे चौरासी हजार से
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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