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________________ सर्वार्थ 840A PEE हजार पच्चीस हैं। बहुरि तुषितअव्याबाधके अंतरालमें आत्मरक्षित सर्वरक्षित हैं। तहां आत्मरक्षित सत्ताईसहजार सत्ताईस हैं, सर्वरक्षित उनतीसहजार उनतीस हैं। बहुरि अव्यावाघअरिष्टके अंतरालमें मरुत वसु हैं। तहां मरुतके देव इकतीसहजार इकतीस हैं, वसुके देव तेतीसहजार तेतीस हैं। वहुरि अरिष्टसारस्वतके अंतरालमें अश्व विश्व हैं । | तहां अश्वदेव पैंतीसहजार पैंतीस हैं, विश्व सैंतीसहजार सैंतीस हैं। ए सर्व चालीस लौकांतिक देव भेले किये चारि । सिद्धि लाख सातहजार आठसै छह हैं। सर्वही स्वाधीन हैं। इनमें हीनाधिक कोऊ नहीं । बहुरि विपयनिके रागनितें रहित टीका हैं । तातें इनकू देवर्षि भी कहिये । याहीते अन्यदेवनिके ये पूज्य है। चौदहपूर्वके धारी हैं । तीर्थकरनिके तपकल्याण विर्षे प्रतिवोधनेवि तत्पर हैं । निरंतर ज्ञानभावनावि जिनका मन रहै है, संसारतें सदाही विरक्त हैं, बारह अनुप्रेक्षा| विर्षे जिनका चित्त प्रवतॆ है ऐसा नामकर्मकी प्रकृतिविशेपके उदयतें उपजे हैं ॥ आगें पूछे हैं, जो, लौकान्तिक देव कहे ते एकभव ले निर्वाण पावै हैं, तो ऐसा और भी देवनिकै निर्वाण पावनेका कालविभाग है ? ऐसे पू→ सूत्र कहै हैं ॥ विजयादिषु द्विचरमाः ।। २६ ।। याका अर्थ-- विजयादिक च्यारि विमानवाले तथा अनुदिशवाले देव दोय भव मनुष्यका लेय मोक्ष जाय हैं । यहां आदिशब्द प्रकारार्थमं है । तातै विजय वैजयंत जयंत अपराजित अनुदिश विमान तिष्ठै हैं तिनका ग्रहण है, जाते इनवि सम्यग्दृष्टीविना उपजै नाहीं ऐसा प्रकारार्थ जानना । इहां कोई कहै है, ऐसे तो सर्वार्थसिद्धिका भी ग्रहण होय है । ताकू कहिये नाही होय है । जाते सर्वार्थसिद्धिके देव परम उत्कृष्ट है । ताते इनकी संज्ञाही सार्थिक हैं । एक भव १ ले मोक्ष पावै हैं । बहुरि इस सूत्रमें चरमपणां मनुष्यभवकी अपेक्षा है, जे दोय भव मनुष्यके ले ते विचरम कहिये। तातें ऐसा अर्थ है, जो, विजयादिकतें चयकरि मनुष्य होय बहुरि संयम आराधि फेरि विजयादिकवि उपजै, । तहांतें चयकरि मनुष्य होय मोक्ष जाय हैं ऐसे द्विचरमदेहपणा है । ऐसें ग्यारह सूत्रनिकरि वैमानिक देवनिका || निरूपण किया ॥ आगें पूछे है, जीवके औदयिक भावनिवि तिर्यग्योनि औदयिकी कही वहरि स्थितिके निरूपणते तिर्यंचनिकी स्थिति o कही, तहातै ऐसा न जाना गया, जो, तिर्यंच कौन हैं ? ऐसा पू॰ सूत्र कहै हैं क
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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