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________________ सर्वार्थ सिदि टीका भ.४ पान जुदे हैं, इनका विमान ब्रह्मलोकस्वर्गके अन्तमें है । तथा ए सर्वही एक मनुष्यके भव लेय निर्वाणकू प्राप्त होय हैं । आगें सामान्यकरि कहे जे लौकान्तिक देव तिनके भेद दिखावनेके आर्थि सूत्र कहै हैं॥सारस्वतादित्यवन्ह्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥ २५॥ वचयाका अर्थ- ए आठ प्रकारके लौकांतिक देव हैं। चशब्दतें इनके विमान अन्तरालविर्षे दोय दोय प्रकारके और ।। निका हैं । ते देव कहा हैं सो कहै हैं । अरुण नामा समुद्रतें उपजा मूलविर्षे संख्यातयोजनका विस्तार जाका ऐसा अंधकारका | स्कंध समुद्रका वलयकी ज्यौं वलयाकार तीव्र है। अंधकाररूप परिणमन जाका ऐसा सो उर्ध्व अनुक्रमतें बधता चलता १९४ संख्यातयोजनका मोटा होता पंचमस्वर्गका पहला पटलका अरिष्ट नामा विमानके नीचें प्राप्त होय कूकडाकी कुटीकी ज्यों मिल गया है। ऐसे अंधकारतें उपरि आठ अंधकारकी पंक्ति उठी हैं। सो अरिष्टविमानके समान निकट चारो दिशामें दोय दोय ऐसे आठ तिर्यग् चाली सो लोकके अंतताई गई। तिन अंधकारकी पंक्तिनिके अंतरालनिविर्षे सारस्वत आदि लौकान्तिकनिके विमान हैं, तहां बसे हैं, सो कहिये हैं। पूर्वउत्तरके कौणविर्षे सारस्वतनिका विमान है । देवनिकी संख्या सातसै है । बहुरि पूर्वदिशावि आदित्यनिका विमान है । देवनिकी संख्या सातसै है। बहुरि पूर्वदक्षिणके कौणमें वह्निदेवनिका विमान है । देवनिकी संख्या सातहजार सात है । बहुरि दक्षिणदिशावि अरुणका विमान है । देवनिकी संख्या सातहजार सात है । बहुरि दक्षिणपश्चिमका कौणमें गईतोयनिका विमान है । देव नवहजार नव हैं । बहुरि पश्चिमदिशावि तुषितनिका विमान है । देव नवहजार नव हैं । बहुरि उत्तरपश्चिमके कौणमें अव्याबाधनिका विमान है । देव ग्यारहहजार ग्यारह हैं । बहुरि उत्तरदिशाविर्षे अरिष्टनिका विमान है । देव ग्यारहहजार ग्यारह हैं। बहुरि चशब्दकरि समुच्चय किये इनके अंतरालमें दोय दोय देवनिके समूह और हैं सो कहिये हैं । सारस्वतआदित्यके अंतरालमें अग्न्याभ सूर्याभ ये हैं । तिनके देव अग्न्याभके सातहजार सात हैं, सूर्याभके नवहजार नव हैं। बहुरि आदित्यवह्निके अंतरालमें चंद्राभ सत्याभ हैं । तामैं चन्द्राभके देव ग्यारहहजार ग्यारह हैं, सत्याभके तेरहहजार तेरह हैं । बहुरि वह्निअरुणके अंतरालमें श्रेयस्कर क्षेमंकर हैं। तहां श्रेयस्करके देव पंद्रहहजार पंद्रह हैं, क्षेमंकरके सत्रहहजार सत्रह हैं । बहुरि अरुणगर्दतोयके अंतरालमें वृषभेष्ट कामचर हैं। तहां वृषभेष्टके उगणीसहजार उगणीस हैं, बहरि कामचर इकईसहजार इकईस हैं। व तोयतुषितके अंतरालमें निर्माणरज दिगंतरक्षित हैं। तहां निर्माणरजके देव तेईसहजार तेईस हैं, दिगंतरक्षित पच्चीस
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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