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________________ वच ८९ हा बहुरि द्रव्यके बहुवचन कहनेते बहुतद्रव्यनिकी सिद्धि भई । बहुरि पर्यायशब्दकै बहुवचन कहनेतें केई वादी वर्तमान पर्यायके 10 ज्ञानीहीकू सर्वज्ञ कहै है । ताका निषेध है । बहुरि जो सर्वद्रव्यका ज्ञाता न होय तो सर्वके उपकाररूप उपदेश २ कैसे प्रवर्ते ? जाते धर्मअधर्मका स्वरूप अतिसूक्ष्म है । सो सर्वका ज्ञाताविना यथार्थ धर्मअधर्मका स्वरूप कैसे जानै । बहुरि ज्ञान जीवनिवि हीनाधिक दीखै है । सो याहीतें जानिये है कोई जीवविषै उत्कृष्ट अधिकतारूप भी ___ सर्वार्थ KAR है ऐसे अनुमानमैं केवलज्ञानका अस्तित्व सिद्ध होय है । ऐसा ज्ञान इंद्रियादिकके सहायविना सर्वद्रव्यपर्यायनिकू निका टीका ।। एककाल जानें है । ऐसा निर्बाध सिद्ध होय है। ताहीकै वीतरागपणां निर्दोषपणां संभव है। बहुरि तिसहीतै हेय उपादेय पान म. 12 पदार्थका यथार्थ उपदेश प्रवर्ते है ऐसा निश्चय करनां ॥ आगें पूछे है, मत्यादिज्ञानका विपयनियम तौ वर्णन किया परंतु यह न जान्यां, जो एक आत्मविर्षे एककाल अपने अपने निमित्तके निकट होते प्रवर्तते जे ज्ञान ते केते होय हैं ? ऐसा प्रश्न होते सूत्र कहै है ॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्व्यः ॥ ३० ॥ याका अर्थ-एक आत्माविर्षे एककाल एक तथा दोय तथा तीन तथा च्यारि ऐसे भाज्य रूप च्यारितांई होय है॥ इहां एकशब्द संख्यावाची है । बहुरि आदिशब्द है सो अवयववाची है एक है आदि जिनकै ते एकादीनि ऐसा समास है । भाज्यानि कहिये भेदरूप करने । युगपत् काहिये एककालविर्षे । एकस्मिन् कहिये एक आत्माविर्षे । आ चतुर्व्यः र कहिये च्यारिताई होय है । तहां एक होय तौ केवलज्ञानही होय, याकी साथ अन्य क्षायोपशमिक ज्ञान होय नांही । 10 दोय होय तौ मतिश्रुतज्ञान होय । तीन होय तौ मतिश्रुतअवधि होय अथवा मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञान होय । च्यारि - होय तौ मति इरुत अवधि मनःपर्यय च्यायोंही होय । पांच एककाल न होय । जाते केवलज्ञान क्षायिक असहायरूप है ॥ इहां प्रश्न, जो क्षायोपशमिकज्ञान तौ एककाल एकही प्रवर्तता कह्या है । इहां च्यारी कैसे कहे ? ताका उत्तर, जो, Kज्ञानावरणकमेका क्षयोपशम होते च्यारी ज्ञानकी जाननशक्तिरूप लब्धि एककाल होय है । बहुरि उपयोग इनिका एककाल | एकही होय है । ताकी एक ज्ञेयतें उपयुक्त होनेकी अपेक्षा स्थिति भी अंतर्मुहूर्तकी कही है । पीछे ज्ञेयांतर उपयुक्त होय जाय है क्षयोपशम जिनिका होय है ते लब्धिरूप एककालही है। इहां कोई कहै उपयोगकी अपेक्षा भी सांकलीके भक्षण करतें रूपादिक पांचका ज्ञान एककालही दाखै है वर्ण सांकलीका दीखै है, स्वादु लेही है । गंध वाका आवही है स्पर्श भी सचीकणा आदि जानैही है। भक्षण करते शब्द होय है । सो सुणेही है । ऐसें पांचका ज्ञान एककाल
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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