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________________ [अर्थदृष्टि] इसी प्रकार किन्हीं किन्हीं गाथाओ के अर्थ भी परंपरा से कुछ जुदे ही रूप में होते चले आ रहे है, जैसे: "सपूञ्चमेवं न लभेज पच्छा एसोवमा सासयवाइयाणं विसीयई सिढिले आयुयम्मि कालोवणीए सरीरस्स भेए।" संस्कृत छाया "सपूर्वमेवं न लभेत पश्चाद् एपोपमा शाश्वतवादिकानाम् विपीदति शिथिले प्रायुपि कालोपनीते शरीरस्य भेदे ।" इसका अर्थ टब्बा की परंपरा के अनुसार इस प्रकार होता है: "जो पहिले नहीं हुआ तो पोछे होगा"-ऐसा कहना ज्ञानी पुरुषों के लिये योग्य है, क्योंकि वे अपने भविष्यकाल को भी जानते हैं, किंतु यदि सामान्य मनुष्य भी वैसा ही मानने लगे और अपनी उन्नति के मार्ग का अनुशीलन किये बिना ही रहे तो मृत्यु समय उन्हे खेद करना पड़ता है।" ऐसा अर्थ करने से यहां ३ प्रश्न उठते है:-(१) चालू प्रसंग में बनी के विषय में ऐसा कथन करना क्या उचित है ? यदि कदाचित घटित भी हो तो भी शाश्वतवादी विशेषण ज्ञानीवाची कैसे हो सकता है ? क्योंकि शाश्वतवादी एवं शाश्वतदर्शी इन दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है । हरेक वस्तु को नित्य (शाश्वत ) कह देना यह तो सब किसी के लिये सुलभ है किन्तु नित्य दर्शन तो केवल ज्ञानी पुरुष ही कर सकते है ? (३) ज्ञानी अर्थ करने पर भी क्या इन दोनों पदों का पूरा अर्थ बराबर घटित होता है ? इन सब प्रश्नों का विचार करने पर जो अर्थ उचित मालुम देता है वह इस प्रकार है: "जो पहिले प्राप्त नहीं होता वह पीछे भी प्राप्त नहीं होता" अर्यात् समस्त जगत की रचना निश्चित है। पहिले जो था वही आज है और वही सदा बना रहेगा । लोक भी शाश्वत है और आत्मा भी शाश्वत है, हम उसमें कुछ भी फेरफार नहीं कर सकते है ? तो फिर आत्मविकास.
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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