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________________ لا لا ل जैन भी उस वस्तु से लगभग अपरिचित से हैं और यह बात अपनी आधुनिक धार्मिक भव्यवस्था से भलीभाँति प्रकट हो रही है। ऐसा होने के तीन कारण हैं: [:] सूत्रों की मूल मापा की अज्ञानता । [२] अनुवाद शैली की दुर्वोधिता । [३] मूल्य की अधिकता । __शिष्ट साहित्य के प्रचार की दृष्टि से की गई यह योजना उक्त तीनों कठिनाइयों को दूर करने में उपयोगी होगी ऐसी आशा है। पद्धति तुलनात्मक दृष्टि के संस्कारों की छाप मुझ पर कैसी एवं किस प्रकार को पड़ी है ? और उसमें मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ ? इन प्रश्नों का निर्णय तो स्वयं वाचक महानुभाव ही करेंगे किन्तु इस उत्तराध्ययन का सांगोपांग अनुवाद करते समय जो जो खास दृष्टियां लक्ष्य में रक्खी गई हैं उनके विषय में सक्षेप में अपना दृष्टिविन्दु उपस्थित करना मुझे आवश्यक जान पड़ता है। (समाज दृष्टि) जैनदर्शन यह दावा करता है कि वह विश्वव्यापी धर्म है और खुले आम इस बात की घोषणा करता है कि मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक जीव को है, मात्र आवश्यकता है योग्यता की। इसीलिये साधु, साध्वी और श्रावक, प्राविका इन चारों अंगों को 'संघ' की संज्ञा दी गई है और उन सब को मोक्षप्राप्ति का समान अधिकार भी दिया गया है। विचारणीय विषय यह है कि ऐसे उदार शासन (धर्म) के सिद्धान्तों में केवल एक ही पक्ष को लागु कोई एकान्त वचन कैसे हो सकता है ? इसलिये गृहस्थ जीवन में भी त्याग हो सकता है और इसीलिये भगवान महावीर ने अणगारी ( साधु) एवं अगारी (गृहस्य ) ये दो प्रकार के स्पष्ट मार्ग वताए हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में एक जगह गृहस्थ के त्याग की महिमा का उल्लेख मिलता है:
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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