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________________ ARES वारा भाषा छनASHISAUNDRORISE असुराणां गतिविषयनियमप्रदर्शनार्थ प्राक् चतुर्थ्या इति वचनं ॥४॥ अध्याय नारकियोंकी वेदनाको प्रगट करनेवाले संक्लेश परिणामवाले असुरकुमार जातिके देवोंका गमन | आदिके पहिले तीन नरकों तक ही है उसके आगे वे नहीं जा सकते इसपकार गतिका नियम प्रार्शन करनेकेलिए सूत्रमें 'प्राक् चतुर्थ्याः' यह वचन है। शंका आङो गृहणं लघ्वर्थमिति चेन्न संदेहात् ॥५॥ ___ आङ् उपसर्गका अर्थ मर्यादा भी है तथा 'पाक्चतुर्थ्याकी जगह 'आचतुर्थाः' कहने पर लाघर ॥ भी है इस रीतिसे 'आचतुर्था' जब ऐसे कहने पर भी असुरकुमारोंके गमनका नियम तीसरी पृथिवी तक सिद्ध हो जाता है तब लाघवसे 'आचतुर्थ्याः' यही सूत्रमें उल्लेख होना चाहिये ? सो ठीक नहीं। आङ्का अर्थ अभिविधि भी माना गया है और अभिविधि अर्थक मानने पर 'आचतुर्थाः यहाँपर है | चौथे नरक तक भी असुरोंका गमन कहा जा सकता है इसलिए अभिविधि और मर्यादा दोनों अओं के || मानने पर यह संदेह हो सकता है कि असुरकुमार जातिके देव चारो नरक तक जाते हैं कि तीन नरक || | तक ? उस संदेहके दूर करनेकेलिए आङ्का उल्लेख न कर प्राक्का उल्लेख किया गया है। अब कोई का संदेह नहीं हो सकता क्योंकि चौथे नरकसे पहिले पहिले अर्थात् तीसरे नरक पर्यंत असुरकुमार जातिके | देवोंका गमन है यह स्पष्ट अर्थ है इस रातिसे भले ही अक्षरलाघव हो तथापि वास्तविक अर्थ की प्रतीतिकेलिए 'आचतु. के स्थान पर 'प्राक्चतुर्थ्याः' उल्लेख ही युक्त है। चशब्दः पूर्वहेतुसमुच्चयार्थः॥६॥ . 'सक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाच' यहाँपर जो चशब्द है उसका तीसरे नरक पर्यंतके नारकी संक्लिष्ट T HAORADABASIC BHABHI AurkRhRhrerkort -
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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