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________________ सरा० अध्याय मापा ६१५ - POSHABADEGREEMEECHECEPTODADAGA पृथिवी और जल दोनोंके परिपाकका कारण तेज है इसलिये जलके वाद सूत्रमें तेजका उल्लेख | किया गया है। . . तेजोऽनंतरं वायुगहणं तदुपकारत्वात् ॥५॥.. पवनका स्वभाव तिरछा चलना माना है। वह प्रेरणाकर तेजका उपकार करती है इसलिए तेजके बाद वायुका ग्रहण है। अंते वनस्पतिगृहणं सर्वेषां तत्पादुर्भाव निमित्तत्वादनंतगुणत्वाच्च ॥६॥ वनस्पति-वृक्ष आदिकी उत्पचिमें पृथिवी जल आदि सभी कारण पडते हैं तथा पृथिवीकायिक आदिकी अपेक्षा वनस्पतिकायिक जीवोंको अनंतगुणा माना है इसलिए सूत्र में सबके अंतमें वनस्पति शब्दका ग्रहण किया गया है ।इसप्रकार पृथिवी जल तेज वायु और वनस्पतिके भेदसे स्थावरजीव पांच | Fi प्रकारके हैं और इन पांचों ही प्रकारके स्थावरोंके स्पर्शनइंद्रिय कायबल उच्छ्वासनिश्वास और आयु ये चार प्राण माने हैं ॥१३॥ अब सूत्रकार त्रस जीवोंके विषयमें कहते हैं हींद्रियादयस्त्रसाः॥१४॥ अर्थ-दो इंद्रियको आदि लेकर पंचेंद्रियपर्यंत जीवोंकी त्रस संज्ञा है। आदिशब्दस्यानेकार्थत्वे विवक्षातो व्यवस्था ॥१॥ प्रकार सामीप्य व्यवस्था आदि बहुतसे आदि शब्दके ऊपर अर्थ बतलाए गए हैं उनमें यहां ई व्यवस्था अर्थका ग्रहण है । दोइंद्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रिय और पंचेंद्रिय जीव आगममें त्रस नामसे व्यव GESGRECENGEOGRACELECRECRLGANESCHES - -
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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