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________________ KALACHER उपयोगलक्षणानुपपचिलक्ष्याभावात् ॥ १४ ॥ मिली हुई वस्तुओंमें किसी खास पदार्थको जुदा करनेवाला लक्षण होता है और जिसका वह है अध्याय लक्षण किया जाता है वह लक्ष्य माना जाता है यह बात ऊपर लिखी जा चुकी है। यह नियम है जो लक्ष्य संसारमें विद्यममान होता है उसीका लक्षण किया जाता है अविद्यमानका नहीं। जिसतरह 'दंडी। ६ देवदतः यहांपर लक्ष्य देवदच नामका पुरुष विद्यमान है इसलिये उसका दंड लक्षण उपयुक्त है किंतु शशविषाण वांझका पुत्र आकाश पुष्प आदि पदार्थ संसारमें विद्यमान नहीं इसलिये उनका लक्षण नहीं किया जा सकता । यहाँपर आत्मा लक्ष्य और उपयोग लक्षण माना गया है जब आत्मा ही पदार्थ है संसारमें सिद्ध नहीं तब उसका उपयोग लक्षण सिद्ध नहीं हो सकता। आत्माका अभाव क्यों है इसकी है पूर्ति नीचकी वार्तिकसे होती है तदभावश्चाकारणत्वादिभिः॥ १५॥ सत्यपि लक्षणत्वानुपपत्तिरनवस्थानात ॥१६॥ संसारमें जितने भी पदार्थ देखे गये हैं सब ही कारणवान देखे गये हैं। आत्मा भी पदार्थ है परंतु ६ उसका कारण कोई भी निश्चित नहीं इसलिये जिसप्रकार मैढककी चोटीका उत्पादक कोई भी कारण टून सिद्ध रहनेसे उसका अभाव है उसीप्रकार आत्मपदार्थका भी उत्पादक कोई कारण नहीं इसलिये हूँ उसका भी अभाव है। अथवा आत्मा पदार्थ हो तो भी उसका जो उपयोग लक्षण माना है वह नहीं बन हूँ है सकता क्योंकि जो पदार्थ अनवस्थित है वह लक्षण नहीं कहा जाता है। उपयोगको ज्ञान दर्शनस्वरूप * माना है और वह क्षणिक है इसलिये अवस्थित न रहने के कारण वह लक्षण नहीं कहा जा सकता इसमें रीतिसे 'देवदत्तका घर कौन है ऐसे पूछनेपर उचर मिलता है कि जिसके नीचे काक बैठा है वही देव. PHERINCESisteAIKACHARRECTECSCIORS REGAON
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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