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________________ ल FLA मध्यास भाषा लनAAAACRECAS हो जाता है इसरीतिसे उसका गरम दूध ठंडा दूध मीठा दूध आदि नामोंसे संसारमें व्यवहार होता है और वह अपने दूधस्वभावको न छोडकर अपने दूधस्वरूपसे ही परिणत होता रहता है। यदि वह अपने दूधस्वरूपसे न परिणमे तो गरम दूध ठंडा दूध आदि व्यवहारोंमें जो दूध नाम सुन पडता है वह न सुन पडे उसीप्रकार इस आत्माका भी ज्ञान आदि उपयोग स्वरूप है । अपने उपयोग स्वरूपको न छोडकर सदा इसका ज्ञानस्वरूपसे परिणमन होता रहता है इसरोतिसे जो पदार्थ जिस स्वरूप होता है | जब उसका उसी रूपसे परिणाम होता दीख पडता है तब ज्ञान भी आत्माका स्वरूप है इसलिए ज्ञानस्वरूपसे उसका परिणमन होना बाधित नहीं। तथा सर्वोपरि बात यह है कि , अतश्चैतदेवं यदि हि न स्यान्निष्परिणामत्वप्रसंगोऽर्थवभावसकरो वा ॥१३॥ जो पदार्थ जिस रूपसे है यदि उस रूपसे उसका परिणाम न माना जायगा तो सब पदार्थ अपरिणामी ठहरेंगे। अपरिणामी कहने पर उन्हें सर्वथा नित्य माना जायगा, जो पदार्थ सर्वथा नित्य होता ा है उसमें क्रिया कारकका व्यवहार नहीं होता इसरीतिसे जीव जानता है देखता जीता है, पुद्गल उत्पन्न होता है इत्यादि सभी संसारका व्यवहार लुप्त हो जायगा । यदि सब पदार्थों का स्वरूपसे परिणाम न मानकर पररूपसे परिणाम माना जायगा तो एक पदार्थ दूसरे पदार्थस्वरूप मानना होगा. इसरीतिसे। समस्त पदार्थोंके स्वभावोंका सांकर्य होनेसे किसी भी पदार्थका कोई भी प्रतिनियत स्वभाव नं ठहरेगा। l यदि यहाँपर दोनों पक्ष ही स्वीकार किए जाय कि स्वस्वरूपसे भी परिणमन होता है और पररूपसे भी परिणमन होता है तो उनका स्वस्वरूपसे परिणाम होता है यह बात सिद्ध हो गई। इसरीतिसे स्वस्वरूप उपयोगरूपसे, जब आत्माका परिणाम युक्ति सिद्ध है तब उपयोग लक्षण उसका वाधित Pा नहीं। यदि यहांपर बौद्ध यह शंका करे कि ACASALAAAAAAAठन ७६
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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