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________________ m EASTRBTeekeB ASSROPLEADAREKAND ग्रहण हो सकता है इसरीतिसे सम्यक्त्वके ग्रहणसे जब सम्पग्मिथ्यात्वका ग्रहण युक्तिसिद्ध है तब उसे जुदा क्षायोपशमिक भाव गिनाना ठीक नहीं। योगको बल माना गया है । बल और वीर्य दोनों एक चीज है इसलिये क्षायोपशमिक भावोंमें ग्रंथकारने वौर्यलब्धि भाव गिनाया है उसमें ही योग भावका 15 समावेश हो जाता है उसके जुदे गिनानेकी कोई आवश्यकता नहीं। अथवा ज्ञानाज्ञानेत्यादि सूत्रमें 'च' शब्दका ग्रहण है। चशब्दका व्याकरणशास्त्र के अनुसार समुहूँ चय अर्थ भी होता है इसलिये जितने क्षायोपशमिक भावोंका सूत्रमें उल्लेख नहीं किया गया है चशब्द से उनका समुच्चय कर लेना चाहिये । शंका संज्ञी और असंज्ञीके भेदसे पंचेंद्रिय जीव दो प्रकारके माने हैं । जिन जीवोंके नोइंद्रियावरण, १ कर्मका क्षयोपशम है वे संज्ञी कहे जाते हैं और जिनके उसका क्षयोपशम नहीं वे असंज्ञी कहे जाते हैं । ६ परंतु पंचेंद्रियपनेके, सबमें समानरूपसे रहने पर किसीके नोइंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम होता है % हूँ किसीके नहीं होता है यह भेद कैसे हो जाता है ? उसका उत्तर यह है कि-एकेंद्रिय जाति आदिको है नाम कर्म माना है इसलिये जिसप्रकार जहाँपर पकेंद्रिय जातिका उदय रहता है वहांपर एकेंद्रिय जाति है तु नामकर्मका क्षयोपशम रहता है और जहांपर दो इंद्रिय आदि जातियोंका सद्भाव रहता है वहां पर दो है इंद्रिय जाति आदि नाम कर्मोका क्षयोपशम रहता है उसीप्रकार संज्ञिजातिको भी नामकर्म माना है * 2 और जहांपर उसका सद्भाव रहता है वहीं पर नोइंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशा रहता है अन्यत्र नहीं . संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोंमें संज्ञि नामकर्मका क्षयोपशम है इसलिये उन्हींके नोइंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम है। असंज्ञी पंचेंद्रियोंके संज्ञि नाम कर्मका क्षयोपशम नहीं इसलिये उनके उसका क्षयोपशम नहीं ॥१॥ OSPERIOUSBARISHC STACT
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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