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________________ त०रा० भाषा ५२३ ভজ भेदशब्दस्य प्रत्येकं परिसमाप्तिर्भुजवत् ॥ २ ॥ जिसतरह 'देवदत्त जिनदत्तगुरुदत्ता भोज्यतां' अर्थात् देवदत्त जिनदत्त गुरुदत्त सभी भोजन करें, यहां पर भुजि क्रियाका सबके साथ सम्बन्ध है अर्थात् देवदत्त भोजन करो जिनदत्त भोजन करो और गुरुदत्त भोजन करो यह अर्थ माना जाता है उसीप्रकार 'द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदाः" यहां पर भी भेद शब्दका संबंध प्रत्येक के साथ है अर्थात् वहां पर दो भेद नो भेद अठारह भेद इक्कीस भेद और तीन | भेद यह अर्थ माना गया है । यथानिर्दिष्टौपशमिकादिभावाभिसंबंधार्थं द्वयादिक्रमवचनं ॥ ३ ॥ आनुपूर्व्य - नंबरवार जो क्रम है उसका नाम यथाक्रम है । 'औपशमिकक्षायिकौ भाव' इत्यादि सूत्रमें औपशमिक आदि भावोंका जिस आनुपूर्वी क्रमसे उल्लेख किया गया है उसी क्रमके अनुसार द्विनव आदिका संबंध है यह प्रकट करनेकेलिये द्विनवाष्टादशेत्यादि सूत्रमें यथाक्रम शब्दका उल्लेख किया गया है । यदि यथाक्रम शब्दका सूत्रमें उल्लेख नहीं किया जाता तो द्विनव आदि भेदों में किस भाव के कितने भेद हैं यह संदेह हो सकता था इसरीतिले क्रमसे औपशमिक भावके दो भेद, क्षायिक के नो भेद, मिश्र के अठारह भेद, औदयिक के इक्कीस भेद और पारिणामिक के तीन भेद हैं यह संपूर्ण सूत्रका समुदित अर्थ है ॥ २ ॥ द्विनव आदि संख्यावाचक शब्दों का उल्लेख तो कर दिया गया परंतु उन द्वि आदिके वाच्य विशेष भेद कौन कौन हैं यह नहीं प्रतिपादन किया गया इसलिये सूत्रकार अब उनके भेदोंके नामका उल्लेख करते हैं । सब भावोंके भेदोंके नाम एक साथ कड़े नहीं जा सकते इसलिये सब भावों में प्रथमोद्दिष्ट औपशमिक भावके भेदों का उल्लेख किया जाता है अध्याय २ ५२३
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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