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________________ रा०रा० भाषा ३६८ * मारणांतिक ४ तैजस ५ आहारक ६ और केवलकि ७ भेदसे सात प्रकारका है । वात पित्त आदि रोग और विष आदि द्रव्य के संबंध से उत्पन्न होनेवाले संतापसे जायमान वेदना - तकलीफ से जो आत्मप्रदेशों का वाहिर निकलना है वह वेदना समुद्रात है । वाह्य और अंतरंग दोनों कारणों के द्वारा उत्पन्न होनेवाले aa कषाय से जो आत्मा के प्रदेशोंका बाहर निकलना है वह कषायसमुद्धात है । समयपर वा असमयमें आयुकर्म नाशसे होनेवाले मेरणसे जो आत्मा के प्रदेशोंका वाहिर निकलना है वह मारणांतिक समुद्वा है। जीवोंका उपकार हो इस बुद्धिसे वा उनका नाश हो इस बुद्धिसे तेजस शरीरको रचना के लिये जो आत्मा प्रदेशों का बाहर निकलना वह तैजस समुद्धात है। मिल जाना, जुदा होना, नानाप्रकार की चेष्टा करना, अनेक प्रकारके शरीर धारण करना, अनेक प्रकारसे वाणीका प्रवर्ताना शस्त्र आदि बनाना इत्यादि जो नानाप्रकार की विक्रियाका होना है और उन विक्रियाओंके अनुकूल आत्मा के प्रदेशका बाहर निकलना है वह वैक्रियिक समुद्धात है । जिसका समाधानं केवलोके साक्षात्कार किये विना नहीं हो सकता ऐसी किसी सूक्ष्म पदार्थविषयक शंकाके उत्पन्न होने पर थोडा पाप लगे इस आशासे जो केवली के निकट जाननेकेलिए आहारक शरीरको रचना करना है और उसके अनुकूल आत्मप्रदेशका बाहर निकलना है वह आहारक समुद्घात है । जिससमय वेदनी कर्म की स्थिति तो अधिक रहै और आयु कर्मकी स्थिति कम रहै उससमय विना ही भोग किये उन दोनों की स्थिति समान करने के लिये द्रव्यस्त्रभाव से जिसप्रकार शरावके फेन वेग बबूले उठा करते हैं और फिर उसीमें जाकर १ मारणांतिक समुद्घात मरणसे किंचित् समय पहले होता है, जहां मर कर जीव जाता है उस योनिका पहले स्पर्श कर भाता है। * अध्याय १ ३६८
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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