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तत्परिणामस्य भेदादग्नरोष्ण्यवत् ॥६॥ परिणाम और परिणामीका कथंचित् भेद माननेके कारण जिसतरह उष्णतास्वरूप अग्निका जलाना पकाना और पसेव उत्पन्न करनेमें समर्थ ओष्ण्य गुण भिन्न माना जाता है और वह अग्नि उष्ण गुणकी आधार मानी जाती है उसीतरह जीवका जो परिणाम है उससे जीव कथंचित् भिन्न है । उस परिणामका ही अशुद्ध निश्चयनयसे जवि स्वामी है।
व्यवहारनयवशात्सर्वेषां ॥७॥ किंतु व्यवहार नयको अपेक्षा जीव अजीव आदि सब ही पदार्थों का स्वामी जीव है अर्थात् अजीव आदि सब पदार्थों में असाधारण चैतन्यगुणकी मुख्यतासे जीव पदार्थ प्रधान है और सब अप्रधान हैं। प्रधान 2 ही स्वामी कहा जाता है इसलिये अजीव आदि पदार्थों का स्वामी जीव है। तथा जीवसे पढकर उत्तम
कोई पदार्थ संसारमें नहीं इसलिये अपना स्वामी आप जीव ही है इसरीतिसे व्यवहार नयकी अपेक्षा जीव अजीव आदि सबका स्वामी जीव पदार्थ है । जीवका कारण कौन है ? इस प्रश्रका समाधान
पारिणामिकभावसाधनो निश्चयतः॥८॥ जीवस्वरूप पारिणामिक भाव ज्ञान दर्शन आदिसे ही सदा काल जीव जीता रहता है इसलिये, निश्रयनयसे तो पारिणामिक भाव जीवके कारण हैं और
__औपशमिकादिभावसाधनश्च व्यवहारात् ॥९॥ व्यवहार नयकी अपेक्षा औपशमिक क्षायिक आदि भावोंके द्वारा जीव जीता है इसलिये औपशमिक क्षायिक आदि भाव व्यवहार नयसे जीवके कारण हैं तथा वीर्य रक्त आहार आदिसे भी जीव