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________________ त०रा० १५८ SIRESSURESIDEREDESIGGe होता है और उसके अभावमें घटका व्यवहार नहीं होता। यदि जिसतरह विशालता और वृक्षके मूल आदिके समान गोल आकारसे भिन्न आकारकी अपेक्षाघटका होना नहीं मानाजाता उसतरह विशालता, और वृक्षके मूल आदिके समान गोल आकाररूप स्वस्वरूपकी अपेक्षा भी उसका होना न माना जायगा तो घट पदार्थ ही न सिद्ध हो सकेगा क्योंकि जिसका स्वरूप ही नहीं वह गधेके सींगके समान हू कोई पदार्थ ही नहीं कहा जा सकता । यदि कदाचित् विशालता और वृक्षके मूल आदिके समान गोल आकाररूप स्वस्वरूपकी अपेक्षा घटका होना माना जाता है उसतरह उससे भिन्न आकाररूप पररूपकी अपेक्षा भी घटका होना माना जायगा तो जहां पर विशाल और उपर्युक्त गोलाई लिये आकार न होगा उससे विपरीत आकार होगा उसे भी घट कहना पडेगा इसरूपसे सब लोक घटस्वरूप ही हो जायगा। ___ अथवा-रूप रस आदिका जो संनिवेश है वह आकार कहा जाता है। रूप आदि विशिष्ट घट नेत्र इंद्रियसे ग्रहण किया जाता है इस व्यवहारमें रूप आदि विशिष्ट घटका ग्रहण रूपके द्वारा नेत्र इंद्रि- यसे होता है अन्य इंद्रियमें सामर्थ्य नहीं जो रूपविशिष्ट घटका ग्रहण कर सके क्योंकि रूप रस आदिई को भिन्न भिन्न रूपसे ग्रहण करनेवाली भिन्न भिन्न इंद्रियां हैं और जो रूपको ग्रहण करनेवाली है वह है रसादिको ग्रहण नहीं कर सकती, एवं जो रसको ग्रहण करनेवाली है वह रूप आदिको ग्रहेण नहीं कर * सकती । इसलिये रूप तो घटका स्वरूप है और रस आदि पररूप हैं । रूपकी अपेक्षा घट है, रस 8 आदिकी अपेक्षा घट नहीं है । यदि चक्षुसे रूपविशिष्ट घटका जिसतरह ग्रहण होता है उसतरह रस द आदि विशिष्ट भी घटका ग्रहण मान लिया जायगा तो सब लोक केवल रूपस्वरूप ही कहना पडेगा B%ESHSAASREPHRASESAROBARSERY
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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