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________________ रा 'वैमानिक देव कल्पोपपन्न और कल्पातीतके भेदसे दो प्रकारके हैं यह बात 'कल्पापपन्नाः कल्पा- | तीताश्च इस सूत्रसे कही गई है वहांपर यह ज्ञान न हो सका कि कल्प किसको कहते हैं ? इसलिए २११३|४|| सूत्रकार कल्प शब्दका खुलासा करते हैं-- -... -- - 'प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः॥२३॥ अवेयकोंसे पहिले पहिलेके १६ स्वर्ग कल्प संज्ञावाले हैं। इनसे आगेके नव वेयकादिक कल्पातति || विमान हैं। इनमें रहनेवाले अहमिंद्र कहे जाते हैं अर्थात् वहांका प्रत्येक देव इंद्रके समान सुख भोगने- ॥६॥ वाला होता है। : कहाँसे लेकर स्वर्गोंकी कल्प संज्ञा है यह बात जानी नहीं जातीइस लिए 'प्राग्वेयकभ्यः' इत्यादि । सूत्रमें अनुवृचिसे सौधर्म आदिका ग्रहण है । इसरीतिप्त यहाँपर यह समझ लेना चाहिए कि सौधर्मसे लेकर । अच्युत स्वर्गपर्यंत जितने विमान हैं उन सबको कल्प संज्ञा है । शंका-यदि यहाँपर सौधशानेत्यादि । | सूत्रसे सौधर्म आदिकी अनुवृचि इष्ट है तब सौधर्मेशानेयादि सूत्र के बाद ही 'माग्नौयकेभ्यः' इत्यादि । 15 सूत्र कहना था यहां उसका उल्लेख ठीक नहीं जान पडता ? उचर- . . . . सौधर्मादनंतर कल्पाभिधाने व्यवधानप्रसंगः॥१॥ ___ यदि सौधर्मेशानेत्यादि सूत्र के अनंतर 'प्राग्य के मः' इत्यादि सूत्रमा उल्लेख किया जायगा और उसके बाद स्थितिप्रभावत्यादि गतिशरीरेत्यादि और पोतप त्यादि इन सूत्रों का उल्लेख किया जायगा तो बीचमें प्राग्वेय केभ्यः इस सूत्रका व्यवधान पडं जानेसे सौधर्म आदि सूत्रमें पठित सर्वार्थ BREBABASABउत्कलन्द्रमाला RECEREMIEन्छन्
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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